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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ. १ सू०२ कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५१७ कदाचित् त्रिदिशम् 'सिय चउदिसिं' स्पात् कदाचित् चतुर्दिशम् ' सिय पंचदिसि' स्पात् कदाचित् पञ्च दिशम् 'सेसं तहेव' शेषम् एतद् व्यतिरिक्तं सर्वे तथैव उत्पलोदेशक देव ज्ञातव्यम् इति । ठिई जहन्नेणं अंतमुहू' स्थितिर्जघन्येनान्तमुहूर्त तेषामेकेन्द्रियाणाम् 'उक्कोसेणं बावीस वाससहस्साई उत्कर्षेण द्वाविशतिवर्षसहस्राणि । 'समुग्धाया आदिल्हा चत्तारि समुद्घाता आचाश्चत्वारः वेदनाकषायमारणान्तिकवैक्रिया ख्याः । ' मारणांतियसमुग्धारणं समोहया वि मरंति असमोहया वि मरंति' ते कृतयुग्मकृतयुग्मै केन्द्रियजीवा मारणान्तिक समुघातेन समवहता अपि म्रियन्ते असमवहता अपि म्रियन्ते । 'उव्वट्टणा जहा करते हैं 'वाघा' पहुच्च सिय तिदिसि' और यदि प्रतिबन्ध होता है तो ये कदाचित् तीन दिशाओं से 'सिय चउदिसि' कदाचित् चार दिशाओं से 'सिय पंचदिसि' कदाचित् पांव दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं । 'सेस' तहेव' बाकी का और सब कथन उत्पल उद्देशक के जैसा ही है । 'ठिई जहन्नेणं अंतों मुहुत्त उक्कोसेण बावीसं वाससहसाइ" इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट से २२ हजार वर्ष की होती है। 'समुग्धाया आदिल्ला चत्तारि समुद्रघात इनके आदि के चार होते हैं - वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात 'मारणांतिय समुरघाए समोहया वि मरति असमोहया वि मरति' ये मारणान्तिकसमुद्घान कर के भी मरते हैं और विना मारणान्तिक समुद्घात के भी मरते हैं 'उब्वट्टगा जहा उप्पलुद्देसए' इन कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय जीवों की उद्वर्तना उत्पल उद्देशक में कही गई के अनुसार ही जाननी चाहिये ।
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आहार हरे छे. 'वाघाय' पडुच्च सिय तिदिसि' माने ले अतिमन्ध होय तो तेथे हाथित् त्रषु हिशाओमांथी सिय चउदिसं वार २२ हिशामेथी 'सिय पंचदिसि' अधवार पांय हिशामभांथी आहार ग्रह ४रे छे. 'सेस' तद्देव' मीनु खलु तमाम प्रथम उत्यस उद्देशाभां ह्या प्रमाणे छे. 'ठिई जहणेण' अतोमुहुत्त उक्कोसेण बावीस वाससहस्लाइ' तेमोनी स्थिति જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતની હાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૨૨ ખાલીસ હજારવ ની डाय के 'समुग्धाया आदिल्ला चत्तारि' तेमाने महिना यार समुद्रघाती डेय છે તે આ પ્રમાણે છે. વેદના સમુદ્ધાત કષાય સમુદ્દાત મારણાન્તિક સમુદ્घात, यने वैडिय सभुद्धात 'मारणांतियत्रमुग्वारणं समोहया वि मरति असमोहया वि मरंति' तेथे। भारयान्ति समुद्धात उरीने पशु भरे है. भने भाराशान्तिः समुद्दधात र्या विना याशु भरे छे. उब्वट्टणा जहा उपप्लुदेखए' मा द्रुतयुग्भ કૃતયુગ્મ શશીવાળા એકેન્દ્રિય જીવાની ઉદ્વૈતના ઉત્પલ ઉદેશામાં કહેલ છે, તે પ્રમાણે સમજવી.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭