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________________ भगवतीसूत्र णामुत्पादोऽधिकृतः ते चैकेन्द्रिया वस्तुतोऽनन्ता एवोत्पद्यन्ते तेषां चोवृत्तेर संभवाद कायसंवेधो न संभवति । यश्च षोडशादीना मेकेन्द्रियेषूपपातः कथितः सच सकायिकेभ्यो ये एकेन्द्रियेत्पद्यन्ते तदपेक्ष एव, न पुनः पारमार्थिकः अनन्तानां पतिसमयं तेषूरपादादिति। 'बाहारो जहा उप्पलुद्देसए' कृतयुग्म कृतयुग्मैकेन्द्रियाणामाहारो यथा उत्पलोद्देशके कथितस्तथैवात्रापि ज्ञातव्यः । 'नवरं निवाघाएणं छदिसि' नवरं केवलम् उत्पलोदेशकापेक्षया इदं वैलक्षण्यं यत् निर्याधातेन यदि कश्चित्पतिबन्धको न भवेत् तदा षड्दिशम् पइदिग्भ्य आहारग्रहणं कुर्वन्तीति । 'वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं' व्याघातं प्रतीत्य स्यात् इसलिये वहां काय संबंध बनजाता है पर यहां कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमित एकेन्द्रियोंका उत्पाद अधिकृत है। ये एकेन्द्रिय वस्तुतः अनन्त रूप में उत्पन्न होते हैं और थे फिर से निकल कर पुनः वहीं पर उत्पन्न होवें तो इनका काय संवेध बन सकता है पर इनका वहां से निकलना असंभव है अतः कायसंवेध नहीं बनता है षोडश राशिप्रमित जीवों का जो एकेन्द्रिय जीवों में उत्पात कहा गया है वह जो त्रसकायिक से आकर के वहां उत्पन्न होते हैं उस अपेक्षा से कहा गया है। पर वह वास्तविक उत्पाद नहीं कारण कि एकेन्द्रियों में अनन्त जीवों का उत्पाद होता है । 'आहारो जहा उप्पलुद्देसए' कृत युग्म कृतयुग्म एकेन्द्रियों का आहार जैसा उत्पल उद्देशक में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जानना चाहिये 'नवर निव्वाधाएण छद्दिसिं' परन्तु वहां की अपेक्षा यहां केवल इतनी सी विशेषता है कि यदि कोई प्रतिवन्ध नहीं होता है तो ये छहों दिशाओं से आहार ग्रहण પ્રમિત એકેન્દ્રિયેના ઉપપાતને અધિકાર કહેલ છે. આ એકેન્દ્રિ વસ્તુતઃ અનંતપણુથી ઉત્પન થાય છે. અને તે ફરિથી ત્યાંથી નીકળીને ફરીથી ત્યાં જ ઉત્પન્ન થાય તેઓને કાયસંવેધ બની શકે છે. પરંતુ ત્યાંથી તેઓનું નીકળવું અસંભવ થાય છે. તેથી કાયસંવેધ બનતો નથી. સળરાશી પ્રમિત જીવોને જે એકેન્દ્રિય જીવમાં ઉત્પાત કહેલ છે, તે ત્રસાયિકથી આવીને ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે તે અપેક્ષાથી કહેલ છે. પરંતુ તે વાસ્તવિક ઉત્પાત નથી. કારણ કે-એકેન્દ્રિયામાં અનંત જીવેને ઉત્પાદ થાય છે. 'आहारो जहा उपलुद्देसए' तयुभ तयुभ सन्द्रियोन भाडा२२ प्रमाणे ઉત્પલ ઉદેશામાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ સમજવું જોઈએ. 'नवर निवाघाए ण छदिसि' ५२'तु त्यांना ४थन ४२तi मडिया १७ र જ વિશેષપણું છે કે-જે કઈ પ્રતિબંધ ન હોય તે આ છએ દિશાઓમાંથી શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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