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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३५ उ. १ सू०२ कृ. कृतयुग्मै केन्द्रियाणामुत्पत्यादिकम् ५२५ न्द्रियवन्तो भवन्ति 'नो अजिंदियाः - इन्द्रियरहित न भवन्ति । 'ते णं भंते ! कडजुम्म एर्गिदिया काळओ केवलच्चिरं होति' ते खलु मदन्त कृयुग्मकृतयुग्मकेन्द्रियाः कालतः कियच्चिरं भवन्ति ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ' हे गौतम! 'जनेणं एवकं समयं जघन्येनैकं समयम् 'उक्को सेणं अनंतं कालं
तापिणी ओसप्पिणीओ' उत्कर्षेणानन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः 'वणस्स इकाइयकालो' वनस्पतिकायिककालः | 'संवेहो न भन्नई' अत्र संवेधो न भण्यते उत्पलोद्देश के उत्पल जीवस्योत्पादो विवक्षितः तत्र च पृथिवीकायिकादिकायान्तरापेक्षया काय संवेधः संभवति इह तु एकेन्द्रियाणां कृतयुग्मकृतयुग्म विशेषा'असन्नी' असंज्ञी ही होते हैं । 'सइंदिया नो अणिदिया' ये सेन्द्रिय स्पर्शन इन्द्रिय सहित ही होते हैं, इन्द्रिय रहित नहीं होता हैं ।
'ते' भंते ! कडजुम्मकडजुम्म एगिंदिया कालओ केवच्चिरं होति' हे भदन्त ! ये कृतयुग्म कृतयुग्म राशि प्रमित एकेन्द्रिय जीव काल की अपेक्षा से कब तक रहते हैं ! उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं !-'गोयमा जहन्ने एक्कं समयं उक्कोसेणं अतिं कालं' हे गौतम! ये जनन्य से तो एक समय तक रहते हैं और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक रहते हैं । इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी समाजाती है। ऐसा यह कथन 'वणस्स इकाइय कालो' वनस्पतिकायिक के काल की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये । 'संवेहो न Hors' यहां संवेध नहीं कहना है। क्योंकि उत्पल उद्देशक में उत्पल के जीव का उत्पाद विवक्षत हुआ है और वह उत्पल जीव पृथिवी आदि अन्यकायिक में उत्पन्न होकर फिर से वही उत्पन्न हो जाते है
'ते णं भ'ते ! कउजुम्मएगिंदिया कालओ देवच्चिर होती' हे भगवन् भा કૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મરાશી પ્રમિત એક ઇન્દ્રિયવાળા જીવેા કાળની અપેક્ષાથી કર્યાં सुधी रहे छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री उडे छे - 'गोयमा ! जहन्नेण एक्कं समयं उक्कोसेणं अनंत काल" हे गौतम! या धन्यथी तो समय સુધી રહે છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી અન`તકાળ સુધી રહે છે આ અન તકાળમાં અન ત ઉત્સર્પિણી અને અનંત અઞર્ષિણી સમાઈ જાય છે. એ પ્રમાણેનું २मा उथन 'वणस्स इकाइय कालो' वनस्पतिविना अपनी अपेक्षाथी उद्यानुं भावु लेथे. 'संवेहो न भण्णई' अडियां संवेधवाना नथी. प्रेम - उत्पक्ष ઉદ્દેશામાં જીવને ઉત્પાદ વિવક્ષિત થયેલ છે, અને તે ઉત્પલ જીવ પૃથ્વી વિગેરે અન્ય કાયિકામાં ઉત્પન્ન થઈ ને રિથી ત્યાં જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તેથી ત્યાં ક્રાયસ વેધ બની જાય છે. પર`તુ અહિયાં મૃતયુગ્મ કૃતયુગ્મરાશિ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭