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भगवतीसूत्रे
पयन् समकं प्रास्थापयन् विषमकं न्यस्थापयन् विषमकं प्रास्थापयन् समकं व्यस्थापयन् विषमकं प्रास्थापयन् विषमत्रं न्यस्थापयन् इत्येवान्तरप्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जीवा चउब्विहा पन्नता' जीवाश्रतुर्विधाः- चतुष्यकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा' तद्यथा- 'अश्थेगइया समाज्या समोववन्नगा' अस्त्येक के समायुष्काः समायुष उदयापेक्षया समकालायुकोदया इत्यर्थः, समोपपचकाः विवक्षितायुषः क्षये समकमेव भवान्तरे उपपन्नाः समोपपत्रकार, येचैवंविधास्ते समकमेव प्रास्थापयन् समकमेव व्यस्थापयन् । तथा अनेक जीव ऐसे भी हैं जो पापकर्म को भोगनेका प्रारम्भ तो एक काल में करते है और उसका अन्त भिन्न-भिन्न काल में करते हैं २ तथा अनेक जीव ऐसे हैं जो पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ भिन्न-भिन्न काल में करते हैं और उसका अन्त एक काल में करते हैं ३ तथा अनेक जीव ऐसे हैं जो पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ भी भिन्न-भिन्न काल में करते हैं और विनाश भी उसका भिन्न-भिन्न काल में करते हैं ?४ इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-"गोयमा ! जीवा चहा पत्ता' हे गौतम! जीव चार प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा ' जैसे- 'अत्थेोगइया समाज्या समोववन्नगा? अत्थेगइया समाज्या विसमोववन्नगार' कितनेक जीव ऐसे होते हैं कि उदयको अपेक्षा से जिनकी आयु समान है अर्थात् जिनकी आयुका उदय समान काल में हुआ है और उसविवक्षित आयु के क्षय होने पर एक ही समय में जिनका भवान्तर में उत्पाद हुआ है, ऐसे जो जीव होते हैं वें पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक साथ करते हैं और एक ही साथ સમયમાં કરે છે?ર તથા અનેક જીવે એવા હાય છે કે-પાપકમને લેાગવવાના પ્રારંભ જુદા-જુદા સમયમાં કરે છે ? અને તેના અન્ય એક કાળમાં કરે છે? ૩ તથા અનેક જીવ એવા હાય છે કે જેએ પાપમને ભેગ વવાના આરંભ જુદા-જુદા કાળમાં કરે છે ? અને તેના વિનાશ પણ જુદા
हा अमां रे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनुश्री हे — 'गोयमा ! जीवा 'व्हिा पन्नत्ता' हे गौतम! वो यार प्रहारना ह्या छे. 'त' जहा ' ते याप्रमाणे छे. 'अत्थेगइया सम्राज्या समोववन्नगा १ अत्थेगइया समाज्या विस्रमोववन्नगा २' साउलवा मेवा होय छे है- उहयनी अपेक्षाथी ? આનુ આયુષ્ય સરખું' છે. અર્થાત્ જેએના આયુષ્યના ઉદય સમાન કાળમાં થયા હાય છે, તે વિવક્ષિત આયુષ્યને ક્ષય થવાથી એક જ સમયમાં ભવાન્તરમાં જેએના ઉત્પાદ ઉત્પત્તિ થયેલ હાય એવા જે જીવા હોય છે. તે પાપ ક્રમ ભાગવવાના પ્રારંભ એકી સાથે કરે છે. અને એકી સાથે તેને વિનાશ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭