________________
४३५
भगवतीसत्र पर्यन्तानां तथा श्रोत्रेन्द्रियवध्य, चक्षुरिन्द्रियबध्य, रसनेन्द्रियबध्य, घ्राणेन्द्रिय बध्य-स्त्रीवेदवध्यान्तानां च कर्मप्रकृतीनां संग्रहो भवति । तथा च ज्ञानावरणीयादारभ्य पुरुषवध्यान्त चतुर्दश कर्मप्रकृतीनामपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयः सर्वेऽपि वेदयन्तीतिभावः। एवं जाव बायर वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं' एवम्-अपर्या त सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां यथा चतुर्दश कमप्रकृति वेदनं कथितं तथैव याबद् बादरवनस्पतिकायिकपर्याप्तकानामपि चतुः दंश कर्मप्रकृति वेदनं ज्ञातव्यम् अत्रापि यावत्पदेन पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकत आरभ्य अपर्याप्त बादरवनस्पतिकायिकान्ताः मवादरामूक्ष्पर्याप्तपर्याप्तभेद. मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय तक ८ कर्मप्रकृतियां तथा श्रोगेन्द्रियवध्य चक्षुइन्द्रिय वध्य घ्राणेन्द्रिय वध्य रसनेन्द्रिय वध्य स्त्रीवेद वध्य और पुरुषवेद वध्य' इस प्रकार अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि से लेकर दोनों प्रकारके वनस्पतिकायिक तकके समस्त एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय आदि से लेकर अन्तराय कर्म तक और श्रोगेन्द्रिय से लेकर पुरुषवेदावरण तक १४ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं। चाहे ये पर्याप्त हों अथवा अपर्याप्त हो । 'एवं जाव बायर घणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं' यही बात इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है। अर्थात् अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकों के सम्बन्ध में जिस प्रकारसे १४ कर्मवकृतियों का वेदन करना कहा गया है उसी प्रकार से यावत् पर्याप्त पादरवनस्पतिकायिकों के सम्बन्ध में भी १४ कर्मप्रकृतियों का वेदन करना कह लेना चाहिये । यहां यावत् पदसे पर्याप्त छ.-ज्ञाना१२०ीय, शन।१२९॥य, वहनीय, माडनीय, मायु, नाम, मात्र અને અંતરાય, સુધીની આઠ કમં પ્રકૃતિ તથા શ્રોત્રેન્દ્રિયવધ્ય, ચક્ષુઈદ્રિય વધ્ય પ્રાણેન્દ્રિયવધ્ય, રસનેન્દ્રિયવધ્ય, સ્ત્રીવેદવધ્ય અને પુરૂષ વેદવધ્ય આ રીતે અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિકથી લઈને બન્ને પ્રકારના વનસ્પતિ કાયિક સુધીના સઘળા એકેન્દ્રિય જીવે જ્ઞાનાવરણીય વિગેરેથી લઈને અંતરાય કર્મ સુધી અને શ્રેગેન્દ્રિયથી લઈને પુરૂષ વેદાયરણ સુધી ૧૪ ચૌદ કર્મ પ્રકૃતિનું वहन ४२ छे. ते पर्याप्त डाय है अपर्याप्त य एवं जाव बायरवणस्सइ काइयाण पज्जत्तगाण" मे पात मा सूर पावा। प्रगट ४२वामा पावस છે. અર્થાત્ અપર્યાપ્ત સૂમ પૃથ્વિીકાયિકના સંબંધમાં જે પ્રમાણે ૧૪ ચૌદ કમપ્રકૃતિનું વેદન કરવાનું કહ્યું છે, એ જ પ્રમાણે યાવતુ બાદર વનસ્પતિ કાચિકેના સંબંધમાં પણ ૧૪ ચૌદ કર્યપ્રકૃતિનું વદન કરવાનું કહ્યું છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭