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________________ प्रमेयचन्द्रिका ठीक। श०३४ अ. श. १ सू०८ बा०पृथ्विकायानां स्थानादिनि० ४३५ भिन्नाः सर्वेऽपि संग्रहीतव्या इति । अथैकेन्द्रियाणा मुत्पत्तिविषयं सूत्रमाह'एर्गिदिया णं भंते! कओ उववज्जंति' एकेन्द्रियजीवाः खलु भदन्त ! कुतःकस्मात् स्थानविशेषाद् आगस्य समुम्पयन्ते 'कि नेरइए हिंतो उववज्जंति' किं नैरयिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किं वा तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्य समुत्पद्यन्ते मनुort वा आगत्य समुत्पद्यन्ते देवेभ्यो वा आगत्य समुत्पद्यन्ते इति प्रश्नः । उत्तरमाह - 'जह | ' इत्यादि । 'जहा बकंतीर पुढवीकाइयाण उववाओ' यथा व्युत्क्रान्तौ प्रज्ञापनासूत्रस्य षष्ठपदे पृथिवीकायिकानामुपपातः तथैवेहापि एकेन्द्रियाणामुपपात वर्णयितव्यः । तथाहि - एकेन्द्रिया नैरयिकेभ्य आगत्य नोत्पद्यन्ते, किन्तु देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते, मनुष्येभ्य आगस्योत्पद्यन्ते । तथासूक्ष्मपृथिवीकायिक से लेकर सूक्ष्म बादर पर्याप्त और अपर्याप्त भेद वाले वनस्पतिकायिक तक के समस्त एकेन्द्रिय जीव गृहीत हुए हैं । 'एनिंदिया णं भते ! कभी उववज्जंति' हे भदन्त ! एकेन्द्रिय जीव किस स्थान विशेष से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'किं नेरइएहिंतों उववज्जंति' क्या वे नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? अथवा मनुष्यों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? अथवा देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'जहा वक्कंनी पुढवीकाइयाणं उबवाओ' हे गौतम! जिस रीति से प्रज्ञापना सूत्र के छटे व्युत्क्रान्तिकपद में पृथिवीकायिकों का उपपाद कहा गया है उसी रीति से उनका वह उत्पाद यहां पर भी जान लेना चाहिये। जैसे- एकेन्द्रिय जीव नैरयिकों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु देवों में से आकर के उत्पन्न તેમ સમજવુ. અહિયાં યાવત્ પદ્મથી સૂક્ષ્મ પૃથ્વિકાયિકથી લઇને સૂક્ષ્મ બાદર પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદવાળા વનસ્પતિકાયિક સુધીના તમામ એકેન્દ્રિય જીવે ગ્રહણ કરાયેલ છે. 'एगिदिया ण' भंते! कओ उववज्ज'ति' डे लगवन् येडेन्द्रिय कवो या स्थान विशेषथी भावीने उत्पन्न थाय छे ? किं नेरइएहि तो उववज्जति' શું તેઓ નૈરિયકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા દેવામાંથી આવીને તેઓ ઉત્પન્ન થાય છે? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री हे छे है- 'जहा वक्तीए पुढवीकाइयाण उवबाओ' હું ગૌતમ ! જે પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠા વ્યુત્ક્રાન્તિ પદમાં પૃથ્વીકાયિકાના ઉપપાદ કહેવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણે તેમના ઉપપાત અહિયાં પણ સમજવા, જેમકે એકેન્દ્રિય નાયિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી, અને શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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