SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३४ अ. श०१ सू०७ दक्षिणचरमान्ते उत्पातनि० ४१७ थिमिल्ले समोहओ पुरथिमिल्ले चेव उववाहओं' एवं यथा-येन प्रकारेण पौरस्त्ये पूर्वचरमान्ते समवहतो-मृतः पौरस्त्ये-पूर्व एव चरमान्ते उपपातितः, 'तहेव दाहिणिल्ले समोहए दाहिणिल्ले चेव उववाएयचो' यथैव दक्षिणे चरमान्ते समवहतः दक्षिणे एव चरमान्ते उपपातयितव्यः, पूर्ववरमान्ते मृताना पूर्वे एव चरमान्ते समुत्पद्यमानानां येन प्रकारेण उपपात: कथित स्तथा तेनैव रूपेण दक्षिणे चरिमान्ते समवहतानां तत्रैवोत्पद्यमानाना मुपपात प्रकारस्तुल्यतयैव वर्णनीयः। 'तहेब निरवसेसं' तथैव निरवशेषं सर्वमपि भणितव्यम्, पकारस्तु दर्शित एवं । कियत्पर्यन्तं पूर्ववरमान्तपकरणम् इह भणितव्यं तत्राह-जाव' इत्यादि । 'जाव सुहुमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहुमत्रणस्सइकाइएसु चेव पज्जत्तएमु दाहिणिल्ले पुरस्थिमिल्ले समोहओ पुरस्थिमिल्ले चेव उवद्याइओ' 'हे गौतम ! जिस प्रकार से पूर्वचरमान्त में समवहत हुआ जीव पूर्व ही चरमान्त में उत्पादित प्रकट किया गया है 'तहेव दाहिणिल्छे समोहए दाहिणिल्ले घेव उववाएयव्यो' उसी प्रकार से दक्षिण चरमान्त में समवहत हुए जीवका दक्षिण चरमान्त में ही उत्पाद कह लेना चाहिये। तात्पर्य यही है कि पूर्वचरमान्त में मृतोका पूर्वही चरमान्त में जिस प्रकार से उपपात कहा गया है उसी प्रकार से दक्षिण चरमान्त में समवहत हुए जीवोंका दक्षिण चरमान्त में उपपात प्रकट करना चाहिये । इस सम्बन्ध में जो उपपात प्रकार है वह सब एकसा है । इसीलिये' तहेव निरबसेसं' इस मुत्रपाठ द्वारा मुत्रकारने 'सष कथन वैमाही है। ऐसा कहा है। पूर्वचरमान्त प्रकरण यहां कहां तक कहने के योग्य कहा गया है ? यह पात 'जाव सुहमवणस्सइकाइओ पज्जत्तओ सुहमवणस्सइकाइएसु चेव पज्जत्त सामय माता प्रभुश्री छे ४-'एवं जहा पुरथिमिल्ले समोहओ पुरथिमिल्ले चेव उबवाइओ' गीतम! २ प्रमाणे पू ५२भान्तमा समुद्धात रेख જીવ પૂર્વચરમાન્ડમાં જ ઉત્પન થવાના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવેલ છે. 'तहेव दाहिणिल्ले समोहए दाहिणिल्ले चेव उववाएयव्यो' को प्रमाण इक्षिा ચરમાન્તમાં સમુદ્રઘાત કરેલ જીવને ઉત્પાત દક્ષિણ ચરમાન્તમાંજ કહે જોઈએ. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વ ચરમાન્તમાં મરણ પામેલાને ઉપપાત પૂર્વ ચરમાન્ડમાં જ જે રીતે કહેલ છે એજ રીતે દક્ષિણ ચરમાન્તમાં સમદ્દઘાત કરેલ છેને ઉપપાત દક્ષિણ ચરમાન્તમાં કહે જોઈએ. આ समयमा ५५तना २ ॥२ छ, त मे सर छे. तेथी 'तहेव निरवसेस' मा सूत्र५४ द्वारा सूत्रारे “सघणु ४थन म । છે. એમ કહેલ છે, પૂર્વ ચરમાન્ત પ્રકરણ અહીયાં કયાં સુધી अ न " मे पात-'जाव सुहुम वणस्सइकाइओं पज्जत्तओ सुहम भ० ५३ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy