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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३१ उ.४ ६०१ कापोतलेश्याश्रित नै. उपपातादिकम् १९९ पयोगेणोत्पद्यन्ते नो परप्रयोगेयोत्यादिकं सर्व कृष्णलेश्यप्रकरणोदितमिड ज्ञानव्यम् इति । 'नवरं उववाओ रयणप्पमाए' नवरं केवलं पूर्वापेक्षया लक्षण्यमिदं पद कापोतलेश्य जीवानामुपपातो यथा रत्नममायां कथितः तथैव सामान्यदण्डके उपपातो वर्णनीय इति । 'सेसं तं चेव' शेषमुपपातातिरिक्त सर्व परिमाणादिक तदेव कृष्ण श्यनारकीय द्वितीयोदेशकवदेव ज्ञातव्यमिति । सामान्यदण्डका कापोत लेश्यजीवानामिति। 'रयणप्पमापुढवीकाउलेस्स खुड्डागाडजुम्म नेरच्या भंते ! को उचवज्जति' रत्नमभापृथिवी कापोतलेश्यक्षुल्लक कृतयुग्मनेरपिका खल भदन्त ! कुत:-कस्मात् स्थानविशेषादागत्य रत्नप्रभायामुत्पद्यन्ते ! इति प्रश्नः, भगवानाह-‘एवं' इत्यादि, ‘एवं चेव' एवमेव यथैव सामान्यदण्डके कापोतलेरनारकजीवानामुत्पत्तिः कथिता तथैव रत्नप्रभापथमनारकाश्रित कापोसे नहीं। इत्यादि सब यह कृष्णलेश्योदित प्रकरण यहां कहना चाहिये 'नवर उवधाओ रयणप्पभाए' परन्तु पूर्व की अपेक्षा से यही वैलक्षण्य है कि कापोतलेश्यावालों का उपपात जैसा रत्नप्रभा में कहा गया है वैसा ही सामान्य दण्डक में उपपात कहना चाहिये । 'सेस तं चेव' उपपात से अतिरिक्त और सब परिमाण आदिक कृष्णलेश्य नारक के द्वितीय उद्देशक के जैसे ही जानना चाहिये । ऐसा यह सामान्य दण्डक कापोतलेश्यावाले जीवों का है। 'रत्नप्रभा पुढवीकाउ. लेस्स खुडाग ५ हजुम्म नेरइयाणं भंते कओ उववज्जति' हे भदन्त ! कापोतवालेश्यावाले क्षुद्रकृतयुग्मराशि प्रमित रत्नप्रभा के नैरयिक किस स्थान विशेष से आकर के रयणप्पभा रूप नरकावास में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-' ए चेव' हे गौतम ! सामान्यदण्डक में कापोतलेश्यावाले नारक जीवों का जैसा उपपात कहा 'नवर उववाओ रयणप्पभाए' ५२ पडसाना ४२तi A 2 विa. ક્ષણપણું છે કે-કાતિલેશ્યાવાળાઓને ઉપપાત જે પ્રમાણે રત્નપ્રભામાં કહે. વામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનો ઉપપાત સામાન્ય દંડકમાં કહેવું જોઈએ. 'सेस त चेव' ५५ातना ४थन शिवाय भानु परिणाम विगैरे ४थन કૃષ્ણલેશ્યાવાળા નારકના બીજા ઉદ્દેશામાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું એ પ્રમાણે આ સામાન્ય દંડક કાપતલેશ્યાનાં સંબંધમાં કહેલ છે. ___'रणप्पभा पुढवी काउलेरस खुड्डागाडजुम्म नेरइयणं भंते | की उववज्जति' 3 सपन् पतिलेश्यावाणा क्षुद्र तयुम्भ राशिथी युत रत्न પ્રભાના નરયિક કયા સ્થાન વિશેષમાંથી આવીને રત્નપ્રભા રૂપ નરકાવાસમાં उत्पन्न थाय छ १ २मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री हे छ -'एव चेव' के શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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