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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू.४ जीवानां भवसिद्धिकत्वादिनि० १३१ चतुरिन्द्रियजीवा अपि एवमेव-पृथिव्यादिवदेव ज्ञातव्याः। 'णवरं संमत्ते ओहियनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे' नवर केवल सम्यक्त्वे औधिकज्ञाने आभिनिवोधिकज्ञाने श्रुतज्ञाने च 'एएसु चेव' एतेषु एव सम्यक्त्वौधिक ज्ञानादि द्वारेषु 'दोसु मज्झिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' द्वयोमध्यमयोरक्रियावाधज्ञानिकवादिनो भवसिद्धिका एव द्वीन्द्रियादारभ्य चतुरिन्द्रियान्ता भवन्ति न तु अभवसिद्धिका भवन्तीति ! 'सेस तंचेव' शेष-मतिज्ञानादिषु यद्वैलक्ष्यं कथितं तदतिरिक्तं सर्व पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति । 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' पञ्चेन्द्रियतियग्योनिका यथा नैरयिकाः नरयिके सामान्य तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव भी पृथिवीकायिक आदिकों के जैसे ही जानना चाहिये, अर्थात् ये सब अक्रियावादी और अज्ञानवादी अवस्थावाले होने के कारण भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसि. द्धिक भी होते हैं। 'नवरं सम्मत्ते ओहियनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे केवल सम्यक्त्व में, औधिक ज्ञान में, आभिनियोधिकज्ञान में और श्रुतज्ञान में 'एएप्सु चेव' अर्थात् इन्ही सम्यक्त्व, औधिकज्ञान आदि द्वारों में 'दोसु मज्झिमेलु समोसरणेतु भवसिद्धिया, नो अभवसिद्धिया' अक्रियावादिता एवं अज्ञानिकवादिता को लेकर ये दीन्द्रियादिक भवसिद्धिक ही होते हैं, अभवसिद्धिक नहीं होते हैं। ऐसा समझना चाहिये । 'सेसं तं चेव' इस प्रकार मतिज्ञान आदि में जो वैलक्षण्य कहा गया है सो उसके सिवाय और सब कथन पूर्व के जैसा ही है। पंचिं. दियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' नैरयिक प्रकरण में सामान्य સમજવા. અર્થાત્ એ બધા અયિાવાદી, અને અજ્ઞાનવાદી અવસ્થાવાળા हापाथी ससिद्धि: ५५ डाय छे अससिद्धि ५५ डाय छे. 'नवर' सम्मत्ते ओहियनाणे आभिणिबोहियनाणे सुयनाणे' 341 सभ्य५१मा मौधि:सानमा ममिनिमोविज्ञानमा भने श्रुतज्ञानमा ‘एएसु चेव' अथामा सभ्यत्व भने मीविज्ञान वि१२ मा 'दोसु मझिमेसु समोसरणेसु भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' मठियावाडी ५॥ अने अज्ञानवाहीपणाने ने माद्वान्द्रिय વિગેરે ભવસિદ્ધિક જ હોય છે, અભવસિદ્ધિક હેતા નથી તેમ સમજવું. 'सेस त चेव' मा शत भतिज्ञान विमेरेभारे पुढापाखु छ, त કથન શિવાય બાકીનું તમામ કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણે જ છે. 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया' ना२ना ५४२४मा सामान्य જીવને અતિદેશ-ભલામણ કરેલ છે. તેથી સામાન્ય જીવના કથન પ્રમાણે શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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