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________________ १३० भगवतीने पर्यन्ताः सर्वेऽपि क्रियावाद्यक्रियावादिप्रभृतिसमवसरणेषु भवसिद्धिकत्यादि रूपेण प्ररूरणीया इति । जीवनारक देवदण्डकान् विविच्य एकेन्द्रियादि दण्डकान् विवेचयन्नाह-'पुढवीकाइया सवठ्ठाणेसु वि मझिल्लेसु दोसु वि समोसरणेस 'भवसिद्धिया वि अभवसिद्धि या वि' पृथिवीकायिका जीवाः सर्वस्थानेषु मध्यमयो रक्रियावाघज्ञानिकवादिरूपयोः समवसरणयो भवसिदिका अपि भवन्ति अभप. सिद्धिका अपि भवन्तीति । 'एवं जाव वणस्सइकाइया' एवं पृयिवीकायिकबदेव यावत् वनस्पतिकायिका अपि माध्यमिकसमवसरणद्वये भवसिद्धिका अपि अमवसिद्धिका अपि भवन्ति, अत्र यावत्पदेनाकायिकतेजस्कायिकवायुकायिकानां संग्रहो भवतीति। 'वेइंदियतेइंदियचउरिदिया एवंचेच' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक सब ही क्रियावादी, अक्रियावादी आदि अवस्थाओं में भवसिद्धिक आदि रूप से समझना चाहिये। इस प्रकार जीव नारक और देव दण्डकों की विवेचना करके अब सूत्रकार एकेन्द्रिय आदिक दण्डकों की विवेचना करते हैं-'पुढवीकाझ्या सम्वट्ठाणेसु वि मज्झिल्लेस्तु दोसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि 'पृथिवीकायिक जीव समस्त स्थानों में अक्रियावादी और अज्ञानवादी रूप दो समवसरणों में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं । 'एवं जाव वणस्सहकाइया' पृथिवी कायिक के जैसे ही धावत् वनस्पतिकायिक भी माध्यमिक दो सम. वतरणों में भवसिद्धिक भी होते हैं और अभवसिद्धिक भी होते हैं। यहां यावत् पद से 'अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक' इनका संग्रह हआ है। 'वेदिय, तेइंदिय चारिदिया एवं चेव' द्वीन्द्रिय, वि जाव थणियकुमारा' ना२४ ४ ४थन प्रमाणे ४ असुमाथी લઈને નિતકુમાર સુધીના સઘળા કિયાવાદી, અકિયાવાદી વિગેરે અવસ્થાઓમાં ભવસિદ્ધિક વિગેરે પણુથી સમજવા. આ પ્રમાણે જીવ, નારક, અને દેવ દંડકોનું વિવેચન કરીને હવે सूत्र४२ मे द्रिय वि२ ६३नु विवेयन ४२ छ.-'पुढवीकाइया सधः टाणेस वि मझिल्लेसु दोसु वि समोसरणेसु भवसिद्धिया वि अभवसिद्धिया वि' પ્રકાયિક જીવે સઘળા સ્થાનમાં અકિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી રૂપ બે સમવસરમાં ભવસિદ્ધિક પણ હોય છે, અને અભાવસિદ્ધિક પણ હોય છે. અહિયાં યાસ્પદથી અકાયિક, તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક એ પદેને સંગ્રહ थये। छे. 'बेइंदिय, ते इंदिय चउरिदिया एव चेव' मे दियवाणा, द्रियવાળા અને ચાર ઈદ્રિયવાળા જીવો પણ પૃથ્વીકાયિક વિગેરેના કથન પ્રમાણે શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૭
SR No.006331
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 17 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages803
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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