SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ भगवतीसूत्रे भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'मूलगुणपडि सेवए वा होज्जा उत्तरगुणपडिसेवए वा होज्जा' मूलगुणपतिसेवको वा भवेत् उत्तरगुणप्रति सेवको वा भवेत् 'मूलगुणं पडि सेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा' मूलगुणान् प्रतिसेवमानः मूलगुणान् विराधयन् पश्चानामात्रवाणां प्राणातिपातादीनाम् अन्यतरम् आस्रव अतिसेवेत तथा-'उत्तरगुणं पडिसेवमाणे दसविहस्स पच्चखाणस्स अन्न यरं पडि से वेज्जा' उत्तरगुणान् प्रतिसेवमानो दशविधस्य प्रत्याख्यानस्य अन्यतमं प्रत्याख्यानम् तत्र दशविधं प्रत्याख्यानम् 'अणागयमइक्कत कोडीसहियं' इत्यादि प्राग्व्याख्यातस्वरूपम्, अथवा 'णवकारपोरसीए' उत्तरगुण होते हैं इनकी विराधना करने वाला जो होता है वह उत्तर गुण प्रतिसेवक होता है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! मूल गुणपडिसेवए वा हेोज्जा उत्तरगुणपडिसेवए वा होज्जा' हे गौतम । वह मूलगुण प्रतिसेवक भी होता है और उत्तरगुण प्रतिसेवक भी होता है। 'मूलगुण पडिसेवमाणे पंचण्हं आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्जा जब वह मूलगुणों का विराधक होता है तब वह पांच आस्रवों में से किसी एक आस्रव का सेवन कर्ता होता है । प्राणातिपात आदि पांच पाप ही पांच आस्रव हैं इनमें से वह किसी एक आस्रव का सेवन करने वाला होता है। 'उत्तरगुणपडिसेवमाणे दस विहस्त पच्चक्खा. स्त अन्नयर पडिसेवेज्जा' और जब वह उत्तरगुणों का विराषक होता है तब दश प्रकार के प्रत्याख्यानों में से किसी एक प्रत्याख्यान का विराधक होता है। ये प्रत्याख्यान 'अणागयमइक्कंत कोडीसहियं" કરવાવાળો હોય છે. તે ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવક હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रश्री गौतभाभी ने छे ,-'गोयमा ! मूलगुणपडिसेवर वा होज्जा उत्तगणपडिसेवए वा होज्जा' गौतम! ते भूगशु प्रतिसेयर पर डाय છે, અને ઉત્તરગુણ પ્રતિસેવક પણ હોય છે. 'मूलगुणं पडिसेवमाणे पंचण्ह आसवाणं अन्नयरं पडिसेवेज्ज क्यारे મૂળગુણેના વિરાધક હોય છે, ત્યારે તે પાંચ આ માંથી કેઈ પણ એક આસવનું સેવન કરે છે. પ્રાણાતિપાત મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન અને પરિગ્રહ પાંચ પ્રકારના પાપેજ પાંચ આસ્રવ કહેવાય છે, તે પાંચ આ પકી आपण समास नु सेवन ४२वावासाय छे. 'उत्तरगुणपडिसेवमाणे दस विहस्स पञ्चक्खाणस्म अन्नयर पडिसेवेज्जा भने न्यारे ते उत्तरशुशानी विरा. ધના કરવાવાળા હોય છે, ત્યારે દસ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાને પૈકી એક પ્રત્યાખ્યા नना विरा य छे. या प्रत्ययान 'अणागयमइक्कंतं कोडीसहिये' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy