________________
प्रमेवचन्द्रिका ठीका श०२५ उ.६ सू०२ षष्ठं प्रतिसेवनाद्वारनिरूपणम्
विराधक इत्यर्थः, अप्रति सेवकः: न चारित्रविराधकः, तथा च हे भदन्त ! पुलाकः किं संयमविराधको भवति संयमाविराधको वा भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'पडि सेवर होज्जा नो अपडि सेवए होज्जा' पुळाकः प्रतिसेवकः संयमविराधको भवेत् नो अतिसेवको न संयमाराधको भवतीति । 'जह पडिसेवए होज्जा कि मूलगुणपडिसेबए होज्जा - उत्तरगुणपडि सेवए होज्जा' यदि प्रतिसेवको भवेत् किं मूळ. गुणप्रति सेवकः, संयमस्य मूळगुणः प्राणातिपातविरमणादय स्तेषां प्रातिकूल्येन सेवको भवति संयमात्मककार्यविराधक इत्यर्थः अथवा उत्तरगुणप्रति सेवकः, उत्तरगुगाः- दशविधपत्याख्यानरूपा स्तेषां विराधको भवतीति प्रश्नः । अर्थ का प्रतिसेवक आचरणकर्त्ता चारित्र विराधक होता है ? अथवा चारित्र का विराधक नहीं होता है ? तथा च हे भदन्त ! पुलाक साधु क्या संयम का विराधक होता है ! अथवा संयम का अविराधक होता है ? ऐसा इस प्रश्न का तात्पर्य है - इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! पडि सेवर होज्जा नो अप्पडिसेबए होज्जा" हे गौतम! वह पुलाक संयम का प्रतिसेवक विराधक होता है अविराधक नहीं होता है। 'जइ पडिसेबए होज्जा किं मूलगुणपडिसेबए होज्जा उत्तरगुणपड सेव होज्जा' हे भदन्त ! यदि वह प्रतिसेवक होता है तो क्या मूलगुण का प्रतिसेवक होता है अथवा उत्तरगुण का प्रतिसेवक होता है ? संघम के मूलगुण प्राणातिपात विरमण आदिक हैं इनका प्रतिकूलरूप से सेवन करने वाला संयम रूप कार्य की विराधना करने वाला मूलगुण का प्रतिसेवक कहा गया है । तथा दश प्रकार के प्रत्याख्यान रूप સેવક-આચરણકરવાવાળા એટલે કે ચારિત્ર વિરાધક હોય છે ? કે ચારિત્રના વિરાધક નથી હોતા? તથા હૈ ભગવત્ પુલાક સાધુ સંયમના વિરાધક હોય છે કે સયમના વિરાધક હોય છે? મા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે'गोयमा ! पड़िसेवए होजा नों अपडिसेबर होज्जा' हे गौतम! ते पुसा संयमना अतिसेव-विराध होय छे, व्यविराध होता नथी. 'जइ पडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेबए होज्जा उत्तरगुण पड़िसेवए होज्जा' डे ભગવત્ જે તે પ્રતિસેવક હાય છે, તે શું તે મૂળગુણુના પ્રતિસેવક હોય છે? અથવા ઉત્તરગુના પ્રતિસેવક હોય છે ? સયમના મૂળગુણ પ્રાણાતિપાત વિરમણુ વિગેરે છે તેનું પ્રતિકૂળતાથી સેવન કરવાવાળોએટલેકે સ'યમ પણાની વિરાધના કરવાવાળા મૂળગુણુના પ્રતિસેવક કહયા છે તથા દસ પ્રકારના પ્રત્યાખ્યાન રૂપ ઉત્તગુણુ હોય છે. તેની જેએ વિરાધના
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
७७