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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०२ तृतीय रागद्वारनिरूपणम् ६७ पुलाकानां पञ्चविधवकुशानां प्रतिसेवना कुशीलस्य च संग्रहो भवति तथा च पुलाकादारभ्य कषायकुशीलान्ताः सर्वेऽपि सरागाः भवेयुनों वीतरागा भवेयुः रित्यर्थः । 'णियंठेणं भंते ! कि सरागे होना पुच्छा' निन्थः खलु भदन्त ! किं सरागो भवेत् वीतरागो वा भवेत् इति पृच्छा-प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोरमा' हे गौतम ! 'णो सरागे होज्जा वीयरागे होज्जा' नो निर्ग्रन्थः सरागः-सकषायो भवेत् किन्तु वीतरागोऽपगतकषायो भवेदिति । 'जइ वीयरागे होज्जा कि उपसंतकसायवीयरागे होज्जा खीणकसायवीयरागे होज्जा' यदि निम्रन्थो वीतरागो भवेत् तदा किम् उपशान्तकषायवीतरागो भवेत् क्षीणकषायवीतरागो भवेत् ? भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' यह कथन कषाय कुशील तक जानना चाहिये। यहां यावत्पद से पांच प्रकार के पुलाकों का पांच प्रकार के बकुशों का और प्रतिसेवना कुशी ल का संग्रह हुमा है। तथा च-पुलाक से लेकर कषायकुशील तक के समस्त निग्रन्थ सराग ही होते हैं वीतराग नहीं होते हैं । 'नियंठे णं भंते ! किं सरागे होज्जा पुच्छ।' हे भदन्त : निर्ग्रन्थ क्या सराग होता है ? अथवा वीतराग होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णो सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ सराग नहीं होता है, वीतराग होता है। क्योंकि वह अवगत कषायवाला होता है । 'जह वीयरागे होज्जा, किं उसतकसायवीयरागे होज्जा, खीण. कसायवीयरागे होज्जा' हे भदन्त ! यदि वह वीतराग होता है तो क्या वह उपशान्त कषाय वाला होने से वीतराग होता हैं ? अथवाक्षीण कषाय वाला होने से वीतराग होता है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! પાંચ પ્રકારના બકુશના અને પ્રતિસેવન કુશીલ તથા કષાય કુશીલના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું તથા-પુલાક થી લઈને કષાય કુશીલ સુધીના સઘળા નિર્ચ न्थी, स२।३॥ होय छे. पीत होत नथी. 'णियंठेण भंते ! कि सरागे होज्जा' पुच्छा माननिय शुस। डीय छ ? अथ! वीत डोय छे ! ॥ म. प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ है-गोयमा ! णो सरागे होज्जो, वीयराणे होज्जा' गौतम! निथ सराप ता नथी परंतु वीतराम डाय छे. भो तमा ४ाय विनाना खाय छ, 'जइ वीयरागे होज्जा, कि उवसंतकसायवीयरागे होज्जा, खीणकसायवीयरागे होज्जा' सावन ते वीतरा डाय छे. તે શું તે ઉપશાંત કષાયવાળા હોવાથી વીતરાગ હોય છે ? કે ક્ષીણ કષાય વાળા હોવાથી વીતરાગ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬