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भगवतीस्त्र बध्नाति, भविष्यकाले भन्नस्यति१, 'अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सई' अस्त्येक कोऽध्नात् न बध्नाति भन्स्यति 'अत्थेगइए बंधी नबंधइ न बंधिस्सई' अस्त्येककोऽवनात् न बध्नाति न मन्त्स्यति ४ इत्येवं प्रथमतृतीय चतुर्थात्मकास्त्रयो भङ्गा अनुमोदिता भगवता मनापर्यवज्ञानिनाम् । तत्रासौ पूर्वकाले आयुरबध्नात् इदानीं देवायुर्बध्नाति ततो मनुष्यायु भन्स्यतीति प्रथमो भङ्ग, अबध्नात् बध्नाति न भन्स्यतीत्याकारको द्वितीय मङ्गो न सम्भवति अवश्यं देवत्वे मनुष्यायुषो बन्धनात् में वह उसका बंध करता है और भविष्यत् में भी वह उसका बन्ध करेगा, 'अत्थेगहए बंधी, न बंधह, बंधिस्तइ' तथा कोई एक मन:पर्यव. ज्ञानी ऐसा होता है कि जिसने पूर्वकाल में आयुष्क कर्म का वध किया है, पर वर्तमान में वह उसका बन्ध नहीं करता है, भविष्यत् में वह उसका बंध करेगा। 'अस्थेगहए बंधी, न बंधा न बंधिस्सइ' तथा-कोई एक मनापर्यवज्ञानी ऐसा भी होता है कि जिसने पूर्व काल में ही आयु. ककर्म का बंध किया होता है, वर्तमान में वह उसका बंध नहीं करता है और न भविष्यत् में भी वह उसका बन्ध करेगा । इस प्रकार से यहां प्रथम तृतीय और चतुर्थ ये तीन भंग होते है। इनमें से प्रथम भंग का तात्पर्य ऐसा है कि मन:पर्ययज्ञानी पूर्वकाल में आयु का बंध कर चुका होता है वर्तमान में यह देवायु का बन्ध करता है, उसके बाद वह फिर मनुष्यायु का बन्ध करेगा। यहां पर 'अबध्नात्, बध्नाति, न भन्स्यनि' ऐसा जो यह द्वितीय भंग है वह संमवित नहीं होता है क्योंकि देवत्व में वह नियमतः मनुष्यायु का बन्ध करने वाला होता है। म रे छ ? भने भविष्यमा ५ त तना ५५ ४२0 'अत्थेगइए बंधी न बंधद, बंधिस्वइ' तथा से मन:५वज्ञानी । डाय १-२॥ પૂર્વ કાળમાં આયુષ્ય કમને બંધ કર્યો છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં તે તેને सय ४रत नथी. लवियमा ततना भय ४२“अत्थेगइर बधी, न बंधा, न बंधिस्माइ' तथा १७ मे मन:पय वज्ञानी मेव। ५४ डाय छ, १ ले પૂર્વકાળમાં જ આયુષ્ય કર્મને બંધ કરેલું હોય છે. વર્તમાનમાં તે તેને બંધ કરતું નથી. તેમ ભવિષ્ય કાળમાં પણ તેને બંધ કરશે નહીં. આ રીતે અહીંયા પહેલે ત્રીજે અને એથે એ ત્રણ ભંગ હોય છે. તે પૈકી પહેલા ભંગનું તાત્પર્ય એ છે કે-મન:પર્યવજ્ઞાની પૂર્વ કાળમાં આયુકર્મને બંધ કરી ચૂકેલ હોય છે. વર્તમાન કાળમાં તે દેવાયુને બંધ કરે છે, તે पछी त श मनुष्य आयुना मध ४२. मडिया 'अबध्नात् , बध्नाति, ने भन्स्यति, सवा २ मा मात्र छ त सलत नथी. भ. દેવ પથામાં તે નિયમ થી મનુષ્ય આયુને બંધ કરવાવાળો હોય છે. ત્રીજે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬