SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 602
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૧૮૮ - भगवतीसूत्रे न भन्स्यति४, इत्येवं क्रमेण चतुर्भङ्गका प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अत्थेगइए बंधी न बंधइ बंधिस्सई' अस्त्येककोऽबध्नात् न बध्नाति भन्स्यति३, 'अ-थे गइए बंधी न बंधइ न बंधिस्सई' अस्त्येककोऽवनात् न बध्नाति न भन्स्यति४, अत्र तृतीयचतुर्थभङ्गो भगवता अनुमोदितौ । सम्यगमियादृष्टिरायु न बध्नाति, चरमशरीरत्वे च कश्चिन्न भन्स्यतीति कस्वा तृतीयचतुर्थावेव भङ्गौ भवत इति । 'नाणी जाव ओहिनाणी चत्तारि भंगा' ज्ञानी यावत् उसका बंध नहीं करता है ? और क्या भविष्यत् काल में वह उसका बन्ध करेगा? इस प्रकार से यह-'अबध्नात् बध्नाति, भन्स्यति १ अबध्नात् , बध्नाति, न भन्स्थति२ अषध्नात्, न बध्नाति, भन्स्यति३ अवध्नात्, न बध्नाति, न भन्स्यति' यहां चार भंगोंवाला प्रश्न श्री गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से पूछा है, इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा ! अत्थेगइए बंधी, न बंधा, बंधिस्सई' हे गौतम! सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में से कोई एक जीव ऐसा होता है कि जिसने पूर्व काल में आयु का बन्ध किया होता है, पर वर्तमान में उसका बन्ध नहीं करता है, आगामी काल में वह उसको पुनः बन्ध करने लगता है। तथा कोई एक जीव ऐसा होता है जिसने पूर्वकाल में आयुकर्म का बन्ध किया होता है पर वर्तमान में उसका बन्ध नहीं करता है और न भविष्यत् में वह उसका बन्ध करता है। इस प्रकार से तृतीय और चतुर्थ भंग यहां पर प्रभुश्री ने प्रदर्शित किये हैं। બંધ કરી ચૂક્યું છે? વર્તમાનમાં તે તેને બંધ નથી કરતો ? અને ભવિષ્યમાં ततना नही रे १ मा प्रमाणे या 'अवनात, बध्नाति, भन्स्यति?' अबन्नात् , बध्नाति, न भन्स्यति२ अबध्नात् न बध्नाति, न भन्स्यति३ अवध्नात् , न बध्नाति, न भन्स्यति४' मा या२ मण पाणी प्रश्न गौतमस्वामी प्रसन पूछस छ. म प्रशन उत्तरमा प्रसुश्री गौतम स्वामीन छ त 'गोयमा ! 'अत्थेगइए बधी, न बधह बंधिस्सई' गौतम ! सभ्यभिच्याहटवाणा वा પૈકી કોઈ એક જીવ એ હોય છે કે-જેણે ભૂતકાળમાં આયુ કર્મને બંધ કર્યો હોય છે, પરંતુ વર્તમાન કાળમાં તે તેને બંધ કરતું નથી, અને ભવિષ્ય કાળમાં તે ફરીથી તેને બંધ કરવા લાગે છે, તથા કઈ એક જીવ એવે હોય છે કે જેણે પૂર્વ કાળમાં આયુ કર્મનો બંધ કરેલ હોય છે. પરંતુ વર્તમાનકાળમાં તેને બંધ કરતા નથી અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે તેને બંધ કરશે નહીં. આ પ્રમાણે અહિયાં ત્રીજે અને ભંગ પ્રભુશ્રીએ પ્રગટ કરેલ છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy