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________________ ૧૪૮ मगवतीसूत्रे चउभंगो' सयोगिनः-योगवतः सामान्यतः सयोगिजीवस्य चतुर्भङ्गः, चत्वारो भङ्गा वक्तव्याः तत्र प्रथमो भङ्गोऽभव्यस्य, द्वितीयो भङ्गो भव्यविशेषस्य, तृतीयो भङ्ग उपशमकस्य, चतुर्थों भङ्गः क्षपकस्येति । 'एवं मणजोगिस्स वि वइजोगिस्स वि कायजोगिस्स वि एवं सयोगिवदेव मनोयोगिनोऽपि वाग्योगिनोऽपि काययोगिनोऽपि चत्वारो भङ्गा अभव्यभव्यविशेषोपशमकक्षपकानाश्रित्य ज्ञातव्या इति । 'अजोगिस्स चरिमो' अयोगिनो-योगरहितस्य चरमो भङ्गो ज्ञातव्यः बध्यमानभन्स्यमानयो स्तस्याभावात् इति १०। एकादशमुपयोगद्वारमाह'सागारोवउत्ते चत्तारि अनागारोबउत्ते वि चत्तारि भंगा' साकारोपयुक्तस्य तथा अनाकारोपयुक्तस्यापि चत्वारो भङ्गाः अबध्नात् बध्नाति भन्स्यतीत्यादिका और चतुर्थ भंग क्षपक जीव को अश्रित करके होते हैं ऐसा प्रभुश्री ने समर्थित किया है १० योगद्वार-'सजोगिस्स चउभंगो' सयोगी जीव के चारों ही भंग होते हैं, इनमें प्रथम भंग अभव्य सयोगी जीव की अपेक्षा से होता है, द्वितीय भंग भव्य सयोगी जीव की अपेक्षा से होता है, तृतीय भंग उपशमक सयोगी की अपेक्षा से और चतुर्थ भंग क्षपक सयोगी की अपेक्षा से होता। एवं मणजोगिस्स वि वइजोगिस्स वि कायजोगिस्स वि' सयोगी के जैसे ही चारों भंग मनोयोगी, वचनयोगी के और काययोगी के होते हैं। जो मनोयोगी अभव्य होता है उसकी अपेक्षा से प्रथम भा जो मनोयोगी भव्य होता है उसकी अपेक्षा से द्वितीय भंग. जो मनोयोगी उपशमक होता है उसकी अपेक्षा से तृतीय भंग और जो मनोयोगीक्षपक होता है उसकी अपेक्षा से चतुर्थ भंग है ऐसा जानना चहिये, इसी प्रकार से वचन योगी और काययोगी में भी जानना चाहिये, 'अजोगिस्स चरमो' अयोगी जीव के केवल एक જીવની અપેક્ષાથી હોય છે. ત્રીજો ભંગ ઉપશમવાળા સગીની અપેક્ષાથી मन याथा भग क्ष५४ श्रेष्शीवाजा सयोगीनी अपेक्षाथी डाय छे. 'एवं मणजोगिस्त्र वि, वइजोगिस्स वि, कायजोगिस्स वि' सयागी नाथन प्रमाणे ચારે અંગે માગવાળા, વચનગવાળા, અને કાયયોગવાળા જીવને હોય છે. જે માગી અભવ્ય હોય છે, તેની અપેક્ષાથી પહેલે ભંગ કહ્યો છે. જે મનેયેગી ભવ્ય હોય છે, તેની અપેક્ષાથી બીજો ભંગ છે. જે માગી ઉપશમવાળા હોય છે, તેની અપેક્ષાથી ત્રીજો ભંગ અને જે મનેયેગી ક્ષક શ્રેણીવાળા હોય છે, તેની અપેક્ષાથી ચેાથો ભંગ થાય છે તેમ સમજવું. એજ પ્રમાણે વચનગી અને કાયયેગીના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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