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________________ - - - - प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०६ अष्टाविंशतितममाकर्षद्वारनिरूपणम् ३७५ भवन्ति नानाभवग्रहणीयश्छेदोपस्थापनीयसंयतस्येति। कमित्याह एकत्र किल भवग्रहणे आकर्षाणां विंशतया षड् भवन्ति इति विंशत्युत्तरं अतमित्यर्थः, ततश्च अष्ठामि भवगुणिता नवशतानि षष्टयधिकानि भवन्ति, इदं च सम्भवमान. माश्रित्य संख्याविशेषपदर्शनम् अतोऽन्यथापि-प्रकारान्तरेणापि यथा नवातानि किश्चिदधिकानि भवन्ति तथा कर्तव्यमिति । 'परिहारविसुदियस्स जहन्नणं दोत्रि' परिहाविशुद्धिकसंगतस्य जघन्येन नानाभवग्रहणीयौ द्वार आकर्षों मक्तः । 'उकोसेणं सत्त' उत्कर्षेण तु सम आकर्षा भवन्ति, परिहारविशुद्धिक्संवतस्प एकस्मिन भवे उत्कर्षेण निवारं परिहारविशुद्धिकचारित्रमाप्तिर्भवतीत्युत्तत्यान, एकस्मिन् भवे त्रिवारम् द्वितीयभवे द्विवारम् तथा तृतीयभवेऽपि दिवारम् इत्यादि विकल्पतः सप्त आकर्षा भवन्ति परिहारविशुद्धिकसंयतस्येति भाव: भीतर आकर्ष होते हैं। ये आकर्ष इस प्रकार से होते है-एक भवग्रहण में १२० आकर्ष होते हैं । १२० में ८ भवों का गुणा करने से ९६० होते हैं । यह सम्भवमात्र को आश्रित करके संख्याविशेषका प्रदर्शन किया गया है । इस प्रकार से अतिरिक्त और भी दूसरे प्रकार से ९६० हो जायें तो वैसा कर लेना चाहिये । 'परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं दोनि उक्कोसेणं सत्त' परिहारविशुद्धिकसंयत के नाना भवों में जघन्य से दो आकर्ष होते हैं और उत्कृष्ट से सात आकर्ष होते हैं। ये इस प्रकार से होते हैं-इसके एक भव में उत्कृष्ट से तीन बार आकर्ष होते हैं अर्थात् इस परिहारविशुद्धिकसंयत को एक भव में उत्कृष्ट से परिहारविशुद्धिक चारित्र की प्राप्ति तीन बार होती है। द्वितीय भव में दो बार होती है, तथा तृतीय भव में भी दो बार होती है। इस प्रकार ७ बार अनेक भवों में परिहारविशुद्धिकसंयत को परिછે, આ આકર્ષે આ પ્રમાણે હોય છે, એક ભવગ્રહણમાં ૧૨૦ એકસે વસ આર્ષ હોય છે. ૧૨૦ એકસ વીસમાં ૮ આઠ ને ગુણવાથી ૬૦ नक्स सा 25 जय तेम ४३ नये. 'परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं दोन्नि उक्कोसेणं सत्त' परिहा२विशुद्धि संयतन मन लाम धन्यथा में मा હોય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી સાત આકર્ષ હોય છે. તે આ પ્રમાણે હોય છે.તેના એક ભવમાં ઉત્કૃષ્ટથી ત્રણ વાર આકર્ષ હોય છે. અર્થાત્ આ પરિ. હારવિશુદ્ધિક સંયતને એક ભવમાં ઉત્કૃષ્ટથી પરિહારવિશુદ્ધ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ ત્રણ વાર થાય છે. બીજા ભવમાં બે વાર થાય છે. તથા ત્રીજા ભવમાં પણ બે વાર થાય છે. આ રીતે છ સાત વાર અનેક ભવમાં પરિહારવિશુદ્ધિક સંયતને શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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