SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.७ सू०४ पञ्चदश सन्निकर्षादिद्वारनिरूपणम् ३२५ ऽपि ज्ञातव्यम् । 'सामाइयसंजए णं भंते !' हे भदन्त ! सामायिकसंथतः 'मुहुमसंपरायसंजयस्स' सुक्ष्मसंपरायसंयतस्य 'परहणसंनिगासेणं' परस्थानसंनिकर्षण -विजातीय 'चरितपज्जवेहि' चारित्रपर्यवैः चारित्रपर्यवापेक्षयेत्यर्थः 'पुच्छा किं हीनः किं तुल्यः किमभ्यधिकः इत्यादि प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'हीणे नो तुल्ले नो अन्महिए' होनो भवति किन्तु नो तुल्यो भवति न वा अभ्यधिको भवति यदि हीनो भवति तदा 'अणंतगुणहीणे' अनन्तगुणहीनो भवतीति । 'एवं अहक्खायसंजयस्स वि' एवं यथाख्यातसंयतस्यापि सामायिक संयतो यथाख्यातसंयतस्य परस्थानसन्निकर्षेण चारित्रपर्यायः हीनो भवति न तुल्यो भवति न वा अधिको भवतीति हीनश्च अनन्तगुणहीनो भवतीति, एवं छेदोक्ता वणिए वि' हेटिल्लेसु तिमु वि समं छट्ठाणवडिए' एवं छेदोपस्थापनीयोऽपि अधसंजएणं भंते ! सुहमसंपरायसंजयस्स.' इसी प्रकार सामायिकसंयत एवं सूक्ष्म संपरायिक संयत विजातीय चारित्रपर्ययों की अपेक्षा से क्या हीन होता है 'पृच्छा' ऐसा प्रश्न है, इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा' हीणे' हे गौतम ! सामायिक संयत सूक्ष्म संपराय संयत की विजातीय चारित्रपर्यायों की अपेक्षा से हीन होता है। किन्तु 'नो तुल्ले नो अम्महिए' तुल्य अथवा अधिक नहीं होती है। यदि वह हीन होता है तो 'अणंतगुणहीणे' अनन्तगुण हीन होता है। 'एवं अहक्खायसंजयस्स वि' इसी प्रकार से लामायिक संयत पयाख्यातसंयत की विजातीय चारित्र पर्यायों की अपेक्षा से हीन होता है । तुल्य अथवा अधिक नहीं होता है । यदि वह हीन होता है तो अनन्तगुण हीन होता है। 'एवं छेदोवढाणिए वि हेटिल्लेसु तिम वि समं छट्टाणवडिए' इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय भी सामायिकसंयत on ने. 'एवं सामाइयसंजए णं भंते ! सुहुमसंपरायसंजयस्स.' त्याल રીતથી સામાયિક સંયત, સૂમસંપાયિક વિજાતીય ચારિત્ર પર્યાની અપેક્ષાથી હીન હોય છે? પૃચ્છા નામ એ પ્રમાણે પ્રશ્ન છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી 3 छ -'गोयमा! हीणे' 3 गीतम! सामा४ि सयत होपस्थापनीय सयता वितीय यारित्र पर्यायानी अपेक्षाथी डीन डाय छे. 'नो तल्ले नो अब्भहिए' तुक्ष्य अथवा अधि: Bात नथी. नेते डीन डाय छ, । 'अणंतगुण हीणे' मनतरहीन डाय छे. 'एवं अहक्खायसंजयस्स वि' से प्रभाव સામાયિકસંયત યથcખ્યાત સંયતના વિજાતીય ચારિત્રપર્યાની અપેક્ષાથી હીન હોય છે. તુલ્ય અથવા અધિકહેતા નથી, જે તે હીન હોય છે. તે અનંતગુણ जीन डाय छ. 'एव' छेदोवढावणिए वि हेदिल्लेसु तिसु वि सम द्वाणवडिप' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy