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भगवतीसुत्रे
' एवं जहा कसायकुसीले ' एवं यथा कषायकुशील, हे गौतम ! अविराधनाश्रयणेन इन्द्रतया चोत्पद्यते सामानिकतया त्रयस्त्रिंशदेवतया लोकपालतया, अहमिन्द्रतया या समुत्पद्यते विराधनापेक्षया तु अन्यतरस्मिन् कस्मिंश्चिदपि भवनपत्यादि देवलोके समुत्पद्यते इति 'एवं छेदोवद्वावणिए वि' एवं सामायिक संयतवदेव छेदोपस्थानीय संयतोSपि अविराधनापेक्षया यावदहमिन्द्रतयोत्पद्यते विराधनापेक्षथातु अम्परस्मिन् देवलोके समुत्पद्यते इति । 'परिहारविमुद्धिए जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिक संयतस्तु यथा पुलाकः पुलावदेव परिहारविशुद्धिकसंयतस्यापि काळकरणानन्तरमविराधनामपेक्ष्य देवगतौ गमनम्' तत्रापि जघन्येन कहते हैं- 'गोयमा ! अविराहणं पडुच्च एवं जहा कसायकुसीले' हे गौतम ! संयम की अविराधना को लेकर वह सामायिक संयत इन्द्ररूप से भी उत्पन्न हो जाता है, त्रायस्त्रिंशत् देव रूप से भी उत्पन्न हो जाता है, लोकपालरूप से भी उत्पन्न हो जाता है और अहमिन्द्र रूप से भी उत्पन्न होता है और जब यह अपने संयम की विराधना करदेता है तब यह भवनपश्यादिक किसी भी देवों में उत्पन्न होता है। 'एवं छेदोवद्वावणिए वि' इसी प्रकार से सामायिक के समान हीछेदोपस्थापनीयसंगत भी अविराधना की अपेक्षा लेकर यावत् अहमिन्द्र की पर्याय से उत्पन्न होता है और संयमादिक की विराधना को लेकर वह भवनपत्यादिक किसी भी देव की पर्याय से उत्पन्न होता है । 'परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए' परिहारविशुद्धिक संयत का कथन पुलाक के जैसा होता है- अर्थात् वह काल कर अविराधना की अपेक्षा या प्रश्नना उत्तरभां प्रभुश्री छे - 'गोयमा ! अविराहणं पडुच्च एवं जहा कसायकुसीले' हे गौतम! संयमनी अविराधनाथी अर्थात् माराષકપણાથી તે સામાયિક સયત ઈન્દ્રપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. સામાયિક દેવપણાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. ત્રાયસ્રિશત્ દેત્રપણાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. લેાકપાલપણાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. અને અહમિદ્રપણાથી પણ ઉત્પન્ન થાય છે. અને જ્યારે તે પેાતાના સંયમની વિરાધના કરે છે, ત્યારે તે लवनयति विगेरे हे मां उत्पन्न थर्ध लय छे. 'एवं छेदो. बट्टावणिए वि' से प्रमाणे सामायिक संयतना उथन प्रभाले छेद्देोपस्थापनीय સયત પણ અવિરાધનાની અપેક્ષાથી યાવત્ અહમિન્દ્રપણાની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. અને સયમ વિગેરની વિરાધનાને લઇને તે ભવનપતિ વિગેર
पाशु शेड वसाउना पर्यायोथी उत्पन्न थ लय छे. 'परिहार बिसुद्धिए जहा पुलाए' परिवार विशुद्धिः संयंत घुसाउना उथन प्रमाणे हेवया भां ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત્ તે કાળ કરીને અવિરાધનાની અપેક્ષાથી દેવગતિમાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬