SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका रा०२५ उ. ६ सू०११ २८ आकर्षद्वारनिरूपणम् २२१ भवतीतिच्छाया । ' एवं पडि सेवणाकुसीले वि' एवं प्रतिसेवनाकुशीलेऽपि एवम्कुशवदेव प्रतिसेवनाकुशीलस्यापि जघन्येन एक एवाकर्षो भयति एक भवग्रहणे उत्कर्षेण शतपरिणामेन भवति द्विरातादारभ्य नवशतपर्यन्तं भवतीति । ' एवं कसायकुसीलेवि' एवं कषायकुशलोऽपि एवम् - वकुशवदेव कषायकुशीलस्यापि एक ग्रहणीय एक आकर्षो जघन्येन, उत्कर्षेण तु शतपृथक्त्वरूप इति । 'णियंठरसणं पुच्छा' निर्मन्थस्य खलु भदन्त ! एक भवग्रहणीयाः कियन्त आकर्षा भवन्तीति पृच्छा प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयम' हे गौतम! 'जहनेणं एक्को' जघन्येन एक आकर्षो भवति 'उकोसेणं दोनि उत्कर्पेण द्वौ आकर्षो एकस्मिन् भवे वारद्वयमुपश्रेणीकरणात् उपशमनिर्ग्रन्थस्य द्वौ आकर्षो भवत इति । 'सिणायस्स णं पुच्छा' स्नातकस्य खलु मदन्त ! एकभवग्रहणीयः कियान् आकर्षो भवतीति मनः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एको' एक: स्नातकस्यैव भवग्रहणे एक एव आकर्षो भवतीति भाव: 'पुलागस्स णं कुसीले वि' वकुश के जैसे ही प्रतिसेवनाकुशील के भी जघन्य से एक ही आकर्ष एक भव में होता है और उत्कृष्ट से दो सौ से लेकर ९ सौ तक आकर्ष होते हैं । 'एवं कसायकुसीले वि' इसी प्रकार से कषायकुशील के भी एक भव में एक ही आकर्ष जघन्य से होता है और उत्कृष्ट से शतपृथक्त्व आकर्ष होते हैं । 'णिस्स पुच्छा' हे भदन्त । निर्ग्रन्थ के एक भव में कितने आकर्ष होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा । जहनेणं एक्को casti दोणि' हे गौतम ! निर्ग्रन्थ के जघन्य से एक भव में एक आकर्ष होता है और उत्कृष्ट से उपशमनिर्ग्रन्थ के दो बार उपशमश्रेणी करने से दो आकर्ष होते हैं। 'सिणायस्स णं पुच्छा' हे भदन्त ! स्नातक के પ્રતિસેવના કુશીલને પણ એક સત્રમાં જઘન્યથી એક જ આકર્ષ' હાય છે. मने उत्दृष्टथी असोथी बर्धने नवसेो सुधीना 'आउष'' होय छे. 'एव ं कवाय कुसीले वि' मे प्रभा षाय हुशीलने पशु मेलवमां भवान्यथी थोड આ હાય છે. અને ઉત્કૃષ`થી શત પૃથકત્વ એટલે કે ખસાથી લઇને નવસા सुधीना 'मा' होय छे. 'णिय ठरव पुच्छा' डे भगवन् निर्ग्रन्थने थोड लवमां डेंटला 'माउ होय हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री छे है- 'गोयमा ! जहणेणं एक्को उक्कोसेणं दोणि' हे गौतम! निर्थन्धने धन्यथी थोड लभ'ष' હાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ઉપશમ નિગ્રન્થને બે વાર ઉપશમ શ્રેણી કરવાથી मे 'ष' होय छे, 'सिणायस्त्र पुच्छा' हे भगवन् स्नाताने थे लवमां શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy