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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.६ सू०६ त्रयोदशं गतिद्वारनिरूपणम् १३१ 'अविराहणं पडुच्च णो इंदत्ताए उवज्जेज्जा जाव अहमिदत्ताए उववज्जेज्जा' अविराधनं प्रतीत्य नो इन्द्रतया वा उत्पद्येत यावत् नो लोकपालतया उत्पयेत किन्तु अहमिन्द्रतया वोत्पद्ये। अत्र यावत्पदेन सामानिकतया प्रायस्त्रिंशत्तयालोकपालतया एतेषां संग्रहो भवति इति । 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' 'विराधनं प्रतीत्य अन्यतरस्मिन् भवनपत्यादौ उत्पद्येत । गतिसंबन्धात् स्थितिमप्याह-स्थितिद्वारस्य पार्थक्येनाभावात् 'पुलायस्स णं भंते देवलोगेषु उबवज्जमाणस्स केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' पुलाकस्य खल भदन्त ! देवलोकेषूसाधु क्या इन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? अथवा सामानिक रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा त्रायस्त्रिंशत् रूप से उत्पन्न होता है ? अथवा लोकपालरूप से उत्पन्न होता है ? अथवा अहमिन्द्ररूप से उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी से कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम! 'अविराहणं पडुच्च णो इंदत्ताए उववज्जेज्जा, जाव अहमिंदताए उववज्जेज्जा' ज्ञानादिकों की अविराधना को लेकर वह इन्द्ररूप से यावत् लोकपाल रूप से उत्पन्न नहीं होता है । किन्तु अहमिन्द्ररूप से वह उत्पन्न होता है । यहां यावत्पद से सामानिक, प्रायलिंशत् और लोकपाल इन देवों का ग्रहण हुआ है । तथा 'विराहणं पडुच्च अन्नयरेसु उववज्जेज्जा' विराधना की अपेक्षा करके वह भवनपन्या. दिकों में से किसी एक में उत्पन्न हो जाता है। अब मूत्रकार गति के सम्बन्ध से स्थिति का भी कथन करते हैं, क्यों कि यहां स्थितिद्वार का कथन पृथक रूप से सूत्रकार ने नहीं किया है । 'पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणस्त केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' इसमें उत्तरमा प्रभुश्री गौतभस्वाभान ४ छ -'गोयमा ! 'अविराहणं पहुच्च जो इंदचाए उववज्जेज्जा जाव अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा' ज्ञानानि विराधनપણાથી તે ઈદ્રરૂપથી યાવત્ લેકપાલપણાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ અહ મિન્દ્રપણાથી તે ઉત્પન્ન થાય છે. અહિયાં યાવતુ પદથી સામાનિક, ત્રાયસિંશત भने ४५ मा वो अप राय छे. तथा विराहणं पडुच्च अन्लयरेसु उववज्जेज्जा' विराधनानी अपेक्षाथी तलनपति विगैरे ४ी ५ એક દેવમાં ઉત્પન્ન થાય છે. હવે સૂત્રકાર ગતિના સંબંધથી સ્થિતિનું પણ કથન કરે છે-કેમકે अडियो स्थितिनु थिन मुटु सूत्रमारे ४९स नथी. 'पुलायस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणस्य केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' मा सूत्रथी गौतमसाभार શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૬
SR No.006330
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 16 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages698
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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