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प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.४ सू०१४ परमाण्वादीनां सैजत्वादिकम् ९२५
'परमाणुपोग्गला णं भंते ! कि देसेया सव्वेया निरेया' परमाणुपुद्गलाः खलु भदन्त ! कि देशैजाः सर्वैजा निरेजाः अंशतः कम्पनशीलाः सर्वावयवतया वा कम्पनवन्तः सर्वथा वा कम्पनरहिताः परमाणवो भवन्तीति प्रश्नः । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो देसेया सव्वेया वि निरेया वि' नो देशेजाः-देशतः कम्पनशीला परमाणवो न भवन्ति निरवयवत्वेन परमाणना देशाभावेन देशतः कम्पनस्यासमवात् , किन्तु सर्वेजा अपि निरेजा अपि-कालभेदेन सर्वे जवनिरेजत्वयोः संभवो भवतीति । 'दुप्पएसिया णं भंते ! खंधा पुच्छा' द्विपदेशिकाः खलु भदन्त ! स्कन्धाः पृच्छा हे भदन्त ! द्विपदेशिकाः स्कन्धाः किं देशैजाः सर्वैजा निरेजावेति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि। होता है और कदाचित् बह सकंप नहीं भी होता है । "परमाणुपोग्गः लाणं भंते ! कि देसेया सव्वेया निरेया" इस सूत्रद्वारा गौतमस्वामी ने जितने भी पुद्गलपरमाणु हैं उनके सम्बन्ध में ऐसा पूछ। है-हे भदन्त ! समस्त पुद्गल परमाणु क्या एकदेश से सकम्प होते हैं ? अथवा सर्व देश से सकम्प होते हैं ? अथवा सकम्प नहीं होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-"गोयमा" हे गौतम ! वे 'नो देसे या एकदेश से सकम्प नहीं होते हैं, किन्तु "सम्वेया वि निरेया वि" सर्व देश से भी सकम्म होते हैं और सकम्प नही भी होते हैं । परमाणुओं में जो देशतः सकम्पत्व का निषेध किया गया है उसका कारण यह है कि उनके निरवयवता के कारण देशत्व का अभाव होता है । "दुप्पएसिया णं भंते । खंधा पुच्छा" इस सूत्र द्वारा श्रीगौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! जो द्विप्रदेशिक स्कन्ध हैं, वे क्या एक देश से सकम्प એકદેશથી અને કેઈવાર સર્વદેશથી સકપ હાય છે. અને કેઈવાર તેઓ स४५ नथी ५४ ता. 'परमाणुपोग्गलाण भंते ! कि देसेया सव्वेया निरेया' આ સૂત્રપાઠદ્વારા શ્રીગૌતમસ્વામીએ જેટલા પણ પુદ્ગલ પરમાણુઓ છે, તેઓ ના સંબંધમાં પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું છે કે હે પરમકૃપાળુ ભગવદ્ સઘળા પદ્દલ પરમાણુઓ શું એકદેશથી સકંપ હોય છે? અથવા સર્વદેશથી સકંપ હોય છે? અથવા સકંપ નથી હોતા ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छ -'गोयमा' 3 गौतम! तया 'नो देसेया' शथी स४५ खाता नथी. पर सव्वेया वि निरेया वि' महथी तो सशथी ५ सय हाय છે. અને સકંપ નથી પણ હતા. પરમાણુ એમાં દેશતઃ સકંપ પણને જે निषेध य . तेनु ॥२ तमनु निश्चय पा छे, 'दुप्पएसिया णं भंते। खंधा पुच्छा' म। सूत्र५४ वा श्रीगौतमस्वामी प्रसुश्री से पूछर्छ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫