________________
भगवती सूत्रे
९२४
स्वभावः स्यात् कदाचित् निजः सर्वथाऽपि कम्पनरहित इत्यर्थः । ' दुप्पएसिए णं भंते! खंधे पुच्छा' द्विप्रदेशिकः खलु भदन्त ! स्कन्धः पृच्छा, हे भदन्त ! द्विपदेशिकः स्कन्धः किं देशैजः सर्वैजो निरेजोवेति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'सिय देसेए सिय सन्वेए सिय निरेए' स्यात्कदाचित् देशैजः - एकावयवतश्चलनवान् स्यात् कदाचित् सर्वेज:--सवयवेन चलनवान् स्यात् - कदाचित् निरेज:- सर्वथाऽपि चलनरहितो द्विपदेशिकस्कन्धः, सावयवतया देशैजत्वस्य सक्रियतया सर्वेजत्वस्वभावतो निरेजत्वस्य च कालभेदेन द्विपदेशिकेषु संभव इति भावः । ' एवं जाव अनंतपए सिए' एवं द्विम देशिकव देव त्रिपदेशिकादारभ्य अनन्तप्रदेशिक स्कन्धः स्यात् देशैजः स्यात् सर्वैजः स्यात् निरेज इति भावः नहीं होता है । वह कदाचित् सर्वांश से सकम्प होता है और कदाचित् सकम्प नहीं होता है।
"दुपएसिए णं भंते । खंधे पुच्छा" हे भदन्त विप्रादेशिक स्कन्ध क्या एक अंश से सकम्प होता है ? अथवा सर्व अंश से सकम्प होता है ? अथवा किसी भी अंश से सकंप नहीं होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोधमा ! सिय देसेए, सिय सव्वेए सिप निरे ए' हे गौतम द्विप्रदेशिक स्कन्ध कदाचित् एकदेश से सकंप होता है कदाचित् सर्व देश से सकंप होता है और कदाचित् वह सकंप नहीं होता है तात्पर्य यही है कि द्विप्रदेशिक स्कन्ध सावयव होता है । इसलिए उसमें काल भेद से देशतः भी और सर्वतः भी चलन क्रिया हो सकती है और यह नहीं भी हो सकती है। "एवं जाव अनंतपएसिए" इसी प्रकार से त्रिपदेशिक स्कन्ध से लेकर अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध तक का स्कन्ध भी काल भेद से कदाचित् एकदेश से कदाचित् सर्वदेश से सकंप वार सच होता नथी. 'दुप्पएखिया णं भंते ! खधे पुच्छा' हे भगवन् मे प्रदेश વાળા સ્કંધ શુ' એક અંશથી સર્કપ હાય છે! અથવા સર્વ અંગ્રેથી સકપ હાય છે? અથવા કાઇ પણ અંશથી સપનથી હાતા ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलुश्री छे - 'गोयमा ! खिय देसेए सिय सव्वेए सिय निरेए' हे गौतम! એ પ્રદેશેાવાળા સ્કંધ કેાઈવાર એક દેશથી સકપ હાય છે, કેઇવાર સદેશથી સકપ હાય છે. અને કાઇવાર સંપ નથી પણ હાતે. આ કથનનું તાપ એ છે કે-એ પ્રદેશેાવાળા ધ અવયવા વાળા હાય છે. તેથી તેમાં કાળભેદથી દેશતઃ અને સતઃ પશુ ચલન ક્રિયા થઈ શકે છે, અને નથી પશુ थर्ध शती ' एवं ' जाव अणतपएसिए' आ४ प्रमाणे त्रयु अहेशोवाजा सुधथी લઈને અનંત પ્રદેશેાવાળા સ્કંધ સુધીના સ્કંધે પણ કાળભેદથી કોઈવાર
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫