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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.४ सू०५ शरीरप्रकारनिरूपणम् शरीराणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-क्रियं-तैजसं-कामणं चेत्यादि । संक्षेपतः-इह प्रद. शितं विशेषजिघृक्षुभिः प्रज्ञापनासूत्रमेव द्रष्टव्यम् ।
शरीरवन्तश्च जीवाश्चलनस्वमात्रा भवन्तीति सामान्यतो जीवानां चलनवादिप्रश्नयन्नाह-'जीवा णं भंते' इत्यादि । 'जीवा णं भंते ! किसेया-निरेया' जीवाः खलु भदन्त ! कि सैना निरेजाः, एजनेन-कम्पनेन सह वर्तन्ते इति सैनाः कम्पन वन्तः । एजनरहिताः निरेजा:-निश्चलना इत्यर्थः । भगशनाह-'गोयमा' इत्यादि। 'गोयमा' हे गौतम ! 'जीवा से पावि-निरेयावि' जीवाः सजाः-चलनस्वभावव. न्तोऽपि भवन्ति निरेजा:-चलनस्वभावरहिता, अपि भवन्तीति । 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा से या वि, निरेयावि' तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते जीवाः हमने यहां यह कथन संक्षेप से प्रदर्शित कर दिया है विशेष जिज्ञासुओं को प्रज्ञापना सूत्रका १२ पद देखना चाहिये । शरीरवाले जीव चलन. स्वभाववाले होते हैं अतः श्रीगौतमस्वामी सामान्य से जीवों के चलन
आदि स्वभाव को लेकर ऐसा प्रश्न करते हैं-'जीवा णं भंते ! कि सेया निरेया' हे भदन्त । जीव क्या सकंप होते हैं ? अथवा निष्कंप होते हैं ? सेज शब्द का अर्थ सकंप है और निरेज शब्द का अर्थ निष्कंप है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'जीवा सेया वि निरेया वि' जीव सकंग भी होते हैं और निष्कंप भी होते हैं। अर्थात् जीव चलनस्वभाववाले भी होते हैं और चलनस्वभाव से रहित भी होते हैं। अब पुनः श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'से केणटेणं भंते! एवं वुच्चा जीवा सेया वि निरेया वि' हे करुगा के सागर भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जीव सकंप-चलन स्वभाववाले સૂત્રનું બારમું પદ જેવું જોઈએ, શરીરવાળા જીવો ચલન સ્વભાવવાળા હોય છે. જેથી શ્રી ગૌતમસ્વામી સામાન્યપણાથી છના ચલન વિગેરે સ્વભાવને सधन सा प्रमाणे प्रश्न ४२ छे. 'जीवाणं भंते ! कि सेया निरेया' है अपन જીવ સપ-કંપવાળા હોય છે? કે કંપ વિનાના હોય છે? સેજ રાબ્દનો અર્થ સકંપ એ પ્રમાણે છે. અને નિરજ શબ્દનો અર્થ નિષ્કપ છે. આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री -'गोयमा ! गौतम ! 'जीवा सेया वि निरेया वि' જીવ સકપ પણ હોય છે. અને નિષ્કપ પણ હોય છે. અર્થાત્ જીવ ચલન વિભાવવાળ પણ હોય છે અને ચલન સ્વભાવ વિનાને પણ હોય છે.
Nथा श्री गौतमस्वामी प्रभुश्रीन से पूछे छे 3-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जीवा सेया वि निरेया वि' है ३७ निधे भगवन् मे मा५ ।। કારણથી કહે છે કે-જીવ સકંપ-ચલન સ્વભાવવાળે પણ હોય છે,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫