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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०६ श्रेण्याः सादित्वादिनिरूपणम् ६९९ अपि श्रेणयः कृतयुग्मरूपा ज्ञातव्याः। न तु-त्र्योजादिरूपाः अत्र यावत्पदेन पाचीमतीच्यायतानां दक्षिणोत्तरायतानां च श्रेणीनां ग्रहणं भवति । ता अपि कृत. युग्म रूपा भवन्ति न तु-ज्योजादिरूपाः। वस्तुस्वभावादेवेति । 'लोगामाससेढीभो एवं चेव' लोकाकाशश्रेणयोऽपि-एवमें।, लोकाकाशश्रेगयोऽपि द्रव्यार्थतया कृत. युग्मरूपा एव भवन्ति न तु योजादिरूपा वस्तुस्वभावत्वादिति। 'एवं अलोपागाससेढीओ वि' एवम्-लोकाकाशश्रेणीवदेव-अलोकाकाशश्रेगयोऽपि द्रव्यार्थनया कृतयुग्मरूपा एव न तु-योजादिरूपा भवन्तीति । अथ प्रदेशार्थतया कृतयुग्मरूपा बता ही कारण है । 'एवं जाव उमहाययाओ' इसी प्रकार से ऊर्ध्व अधः आयत जो श्रेणियां हैं वे भी कृतयुग्म रूप हैं ऐसा जानना चाहिये । व्योजादि रूप नहीं हैं यहाँ यावत्पद से पूर्व से पश्चिम तक लम्बी श्रेणियों का और दक्षिण से उत्तर तक लम्बी श्रेणियों का ग्रहण हुआ है । अतः ये श्रेगियां भी कृतयुग्मरूप ही हैं। ज्योजादिरूप नहीं हैं। क्यों कि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है। - अब श्री गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं-'लोगागाससेढीओ एवं चेव' हे भदन्त ! क्या लोकाकाश की श्रेणियां कृतयुग्मरूप हैं ? अथवा योजरूप हैं ? अथवा द्वापरयुग्मरूप हैं ? अथवा कल्यो जरूप हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्रीने ऐसा कहा कि हे गौतम! लोकाकाश की जो श्रेणियाँ हैं वे भी द्रव्यार्थता से कृतयुग्मरूप ही हैं योजादिरूप नहीं हैं । एवं अलोगागाससेढीओवि' इसी प्रकार से अलोकाकाश की श्रेणि के संबंध में भी कहना चाहिये । अर्थात् अलोकाकाश की श्रेणियां भी द्रव्यार्थतासे कृतयुग्मरूप ही होती हैं किन्तु योजादिरूप नहीं होती है। નીચે લાંબી જે શ્રેણિયે છે, તે પણ કૃતયુગ્મ રૂપ છે તેમ સમજવું જોઈએ એજ વિગેરે રૂપ નથી. અહીંયાં યાવત્પદથી પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધીની લાબી શ્રેણિયે ગ્રહણ કરાઈ છે. તેથી આ શ્રેણિયે પણ કૃતયુમ રૂપ જ છે. વ્યાજ રૂપ નથી કેમકે વસ્તુને સ્વભાવ જ એવે છે.
व श्री. गौतम स्वामी प्रभुश्रीन से पूछे छे ,-'लोगागाससेढीओ एवं चेव' हे भगवन शनी श्रेलिय। शुकृतयुम ३५ छ ? अथवा व्यास રૂપ છે? અથવા દ્વાપર યુગમ રૂપ છે? અથવા કલ્યોજ રૂપ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીએ એવું કહ્યું કે-હે ગૌતમ! કાકાશની જે શ્રેણિયે છે, તે पा द्रव्यपणाथी इतयुम ३५४ छे. व्या विशे२ ३५ नथी. 'एष' अहोगा. गाससेढीओ वि' मेरा प्रमाणे मोशनी श्रेणियाना विषयमा ५५ व જોઈએ. અર્થાત્ અલેકકાશની શ્રેણિયે પણ વ્યાર્થપણથી કૃતયુમરૂપ જ છે.
જાદિ રૂપ હેતી નથી.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫