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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ २०२ रत्नप्रभादिपृथिव्यपेक्षया सं०नि० ६०७ पन्नता' पञ्च संस्थानानि प्रज्ञप्तानि, अनित्थंस्थसंस्थानस्य तदन्यसंयोगजन्यत्वेन नस्य विवक्षा न कृता अतः पश्चैव संस्थानानि अब कथितानि । भेदमेव दर्शयति'नं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'परिमण्डलं यावदायतम्, अत्र यावत्पदेन वृत्तव्यस्र वतुरस्रसंस्थानानां ग्रहणं भाति, तथा च परिमण्डलवृत्तव्यत्रचतुरस्रायतभेदात् संस्थानानि पञ्च भवन्तीति भावः । 'परिमंडलाणं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा असंखेजा अणत' परिमण्डलानि खलु भदन्त ! संस्थानानि किं निरूपण करने के लिये पुनः उसी अर्थ की प्ररूपणा करते हैं
'कह णं भंते ! संठाणा पनत्ता' इत्यादि सूत्र २ ।
टीकार्थ-गौतम ने इस सूत्रद्वारा पुनः ऐसा ही पूछा है-'कह णं भंते ! संठाणा पन्नत्ता' हे भदन्त ! संस्थान कितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! पंच संठागा पण ता' हे गोतम ! संस्थान पांच कहे गये हैं। यहां पर अनित्थंध संस्थान की विवक्षा नहीं हुई है। क्योंकि वह संस्थान अन्य संस्थानों के संयोग से उत्पन्न होता है। इसलिये पांव संस्थान सूत्रकार ने कहे हैं । वे पांच संस्थान 'तं जहा' इस प्रकार से हैं-'परिमंडले जाव आयए' परिमंडल यावत् आयत संस्थान यहां पर यावत्पद से वृत्त यस एवं चतुरस्र इन संस्थानों का ग्रहण हुआ है। तथा च-परिमंडल, वृत्त, घस्र, चतुरस्र और आयत के भेद से संस्थान पांच हो जाते हैं । अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'परिमंडला णं भंते ! संठाणा कि ४२६॥ भाटे ५शथी मे अनु नि३५ ४२ छ. 'कइविहे णं भंते ! सठाणा पन्नत्ता' त्यादि
ટીકાઈ-ગૌતમસવામીએ આ સૂત્ર દ્વારા મહાવીર પ્રભુને એવું પૂછયું छे-कह णं भवे ! सठाणा पन्नत्ता' हे सगन् सस्थानना हटवा - २॥ द्या छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४७ छ -'गोयमा पंच संठाणा पन्नत्ता' 3 गौतम सस्थान। पांय ह्या छे. मडिया अनित्य २५ संस्थाननी વિવક્ષા કરી નથી. કેમકે આ સંસ્થાન બીજા સ્થાનેથી થવાવાળું હોય છે, तथा पांय सथानी सूत्रारे ह्या छे, 'तं जहा' ते पाय सथानी । प्रमाणे छे.-'परिमंडले जाव आयए' परिभ७८ यात मायत मेट परि. મંડલ સંસ્થાન વૃત્તસંસ્થાન, વ્યસ સંસ્થાન ચતુરસ્ત્ર સંસ્થાન અને આયત સંસ્થાન આ રીતે પાંચ સંસ્થાનો કહ્યા છે, અહિયાં યાવત્ શબ્દથી બાકીના વ્યસ્ત્ર વિગેરે સંસ્થાને ગણાવ્યા છે.
हवे गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछे छे है-'परिमंडला णं भंते ! संठाणा
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫