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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.२ सू८४ स्थितास्थितद्रव्यग्रहणनिरूपणम् ५८३ मसौ केनावृत्तत्वं विद्यते इयतः उच्यते 'नियम छदिसि' इति, यदपि वायुकायिक जीवानां सनाड्या बहिरपि वैक्रियशरीरं भवति तदिह न विवक्षितमप्रधानत्वात्तस्य। तथाविधलोकान्तनिष्कुटे वा वैक्रियशरीरवान वायुन भवतीति। 'एवं आहारगसरीरताए वि' एवम्-अनेनैव प्रकारेण आहारकशरीरसंबन्धेऽपि सर्वमवगन्तव्यमिनि 'जीवे णं भंते' जीवः खलु भदन्त ! 'जाइं दब्वाइं तेयगसरीरत्ताए गेण्हा पुच्छा यानि द्रव्याणि तैजसशीरतया गृह्णाति इति पृच्छा प्रश्नः। तैजसशरीरनिष्पत्यर्थ यानि द्रव्याणि गृणाति जीवस्तानि द्रव्याणि किं स्थितानि अस्थितानि वेति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ठियाई गेण्हइ नो अठियाई गेण्डइ' स्थितानि द्रव्याणि गृहणाति नो अस्थितानि गृहणाति स्थितानि गृह्णाति, जीवावगाहक्षेत्राभ्यन्तरीभूतान्येव गृणातीति नो अस्थितानि न तदनन्तरवर्तीनि लोकदेश की छहों दिशाओं में से आहार ग्रहण करता है । यद्यपि वायुकायिक जीवों के प्रसनाडी के बाहर भी वैक्रियशरीर होता है। -परन्तु अप्रधान होने से उसकी यहां विवक्षा नहीं है। अथवा-तथाविध लोकान्त निष्कुट में वैक्रिय शरीर वाला नहीं होता हैं। इसी प्रकार से आहारकशरीर के सम्बन्ध में भी सब कथन जानना चाहिये।
अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'जीवे णं भंते ! जाई दव्वाई तेयगसरीरत्ताए गेण्हई' पुच्छा हे भदन्त ! जीव जो पुद्गलद्रव्यों को तेजसशरीररूप से ग्रहण करते हैं वे पुद्गलद्रव्य क्या स्थित होते हैं अथवा अस्थित होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! ठियाई गिण्हह नो अठियाई' हे गौतम! वे पुद्गलद्रव्य स्थित होते हैं अस्थित नहीं होते हैं। હોય છે. તેથી તે વિક્ષિત લોકદેશની છએ દિશાઓમાંથી આહાર ગ્રહણ કરે છે. જો કે વાયુકાયિક જીના ત્રસનાડીની બહાર પણ વૈક્રિય શરીર હોય છે, પરંતુ અપ્રધાન હોવાથી તેની ત્યાં વિવક્ષા કરી નથી. અથવા તે પ્રકારના કાન્તના નિકુટમાં વૈક્રિય શરીરવાળા વાયુ હોતા નથી. આ પ્રમાણે આહારક શરીરના સંબંધમાં પણ સઘળું કથન સમજવું જોઈએ.
वे गौतम२॥भी प्रभुने मे पूछे छे ४-'जीवे ण भंते ! जाई दवाई तेयगसरीत्ताए गेण्हइ पुच्छा' 3 मापन २ । पुरस द्र०यान तेरस शरीर પણુથી ગ્રહણ કરે છે, તે પુદ્ગલ દ્રવ્યો, શું સ્થિત હોય છે? કે અસ્થિત डाय छ १ मा प्रश्न उत्तरभां भडावी२ प्रभु छ -'गोयमा ! ठियाई गेण्हह नो अठियाई' के गौतम ! ते पुद्द द्रव्य स्थित डाय छ मस्थित
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫