________________
-
-
प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.१ सु०३ जीवानां योगाल्यबहुत्वम् ५३३ न्धात् जघन्योत्कर्षभेदाच्च अष्टाविंशतिप्रकारकस्यालमबहुत्वादि जीवस्थानकविशेषाद्भवतीति । तत्र कतरे जीगः कतरेभ्यो जीवेभ्यो यावद्विशेषाधिका वा अत्र यावत्पदेन अल्पा वा, बहुका बा, तुल्या वा, इत्येतेषां संग्रही भवतीति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'सबत्योवे सुहमस्स अपज्जत्तगस्त जहन्नए जोए?' सर्वस्वोकः-सर्वेभ्योऽल्पीयान समस्यापर्याप्त कस्य जघन्यको योगः मूक्ष्मस्थ पृथिव्यादेः ममत्वात् तस्य शरीरस्थापि अपर्याप्तकत्वेन असंपूर्णत्वात् , तत्राऽपि जघन्यस्य विवक्षितत्वात सर्वेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यो योगेभ्यः सकाशात् स्तोकः सर्वस्तोको भाति जघन्यो योगः, स पुनर्वग्रहिक चौदह जीवस्थानों को लेकर २८ अठाइस भेद हो जाते हैं अर्थात् जीव के समान (संक्षेप) से १४ जो भेद कहे गये हैं उनमें योग होता है और यह योग जघन्य और उत्कृष्ट भेद वाला होता है । इसलिये १४ चौदह जीवस्थानों के प्रत्येक स्थान के २-२ योग के भेद का सद्भाव से योग के २८ अठाईस भेद हो जाते हैं। यहां पावर शाद से अल्पबहुत और तुल्य' इन पदों का संग्रह हुआ है। इसीलिये गौतम ने ऐसा प्रश्न किया है।
गौतम के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! 'सव्यत्यावे सुहमस्स अपज्जत्तगस्त जहन्नए जोगे' हे गौतम! सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव का जघन्य योग सब से अल्प होता है क्योंकि सूक्ष्म नामकर्म के उदय से पृथिव्यादिक एकेन्द्रिय जीव मूक्ष्म होते हैं अर्थात् इनका शरीर सूक्ष्म होता है-और अपर्याप्तक होने के कारण वह इनका शरीर अपूर्ण रहता है। इसलिये वह નેના દરેક સ્થાનના ૨-૨ બબ્બે વેગ ભેદ થવાથી વેગના ૨૮ અઠયાવીસ ભેદે થઈ જાય છે. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી અ૫, બડુ અને તુલ્ય આ પદેને સંગ્રહ થયે છે. તેથી જ ગૌતમ સ્વામીએ આ રીતને પ્રશ્ન કર્યો छ. गौतम स्वामीन। म प्रशन उत्तरमा प्रभु ४ छ -'सम्वत्थोवे सुहुमस्स अपज्ज तगम जहन्नर जोगे' गी14 ! सूक्ष्म ५५या मे द्रिय. વાળા જીવને જઘન્ય એગ બધાથી અલ્પ હોય છે. કેમકે સૂક્ષ્મ નામકર્મના ઉદયથી જઘન્ય પૃવિ વિગેરે એક ઇન્દ્રિયવાળા જ સૂક્ષમ હોય છે. અર્થાત્ તેઓનું શરીર સૂક્ષમ હોય છે, અને અપર્યાપક હેવાના કારણે તે તેમનું શરીર અપૂર્ણ હોય છે. તેથી એ ચેગ બીજા યોગ કરતાં જઘન્યની વિરક્ષા હોવાના કારણે બધાથી કમ હોય છે. આ પેગ વિગ્રહગતિ માં જે કામણ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫