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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२१ वृ०२ आनतादिदेवेभ्यः मनुष्येपूत्पत्तिः ४११ एष गमाः सर्वार्थसिद्धदेवानां भवन्ति । एषां जघन्यस्थिते रभावात् मध्यमं गात्रय न मवति, तथा उत्कृष्टस्थि तेरभागात अन्तिममपि गमत्रयं न भवति, एतदेव दर्श यति-'एए चेत्र' इत्यादि, 'एए चेव तिन्नि गमगा' एते-उपरिदर्शिता एवं त्रयो गमकाः आधा एव त्रयो गमा भवन्ति, 'सेप्ता न भण्गंति' शेषाः-तद्भिनाः-चतुर्थपश्चमषष्ठसप्तमाष्टमनवमगमका न भण्यन्ते सर्वार्थसिद्ध देवानां जघन्यस्थितेरभावान्मध्यम गमत्रयं न भवति नथोत्कृष्टस्थितेरभावात् चरममपि गमत्रयं न भवति इति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! नि' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे भदन्त ! मनुष्येषु
यहां प्रकरान्तरसे नौ गमक नहीं होते हैं किन्तु आदि के ३ गम होते हैं। क्योंकि इनमें जघन्य स्थिति का अभाव होता है अतः मध्यम तीन गम नहीं होते हैं। तथा उत्कृष्ट स्थिति का भी अभाव रहता है अतः अन्त के भो ३ गम नहीं होते हैं। यही बात-'एए चेव तिमि गमगा' इस सूत्रपाठ द्वारा सूत्रकार ने प्रदर्शित की है-इस प्रकार यहाँ आदि के ही तीन गम हुए हैं 'सेसा न भण्णंति' शेष-अन्तके
और मध्य के ३३ गम नहीं हुए हैं। तात्पर्य इस कथन को यही है कि सर्वार्थसिद्ध के देव अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति वाले होते हैं-इस कारण जघन्य स्थिति के अमाव में मध्य के ३ गम और उत्कृष्ट स्थिति के अभाव में अन्त के ३ गम वहां नहीं हुए हैं। 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति' हे भदन्त ! मनुष्यगति में जो आप देवानुप्रिय ने जीवों के उत्पाद
અહિયાં અન્યત્ર બતાવ્યા પ્રમાણેના નવ ગમે થતા નથી. પરંતુ પહેલાના ત્રણ જ ગમે થાય છે. કેમકે આમાં જઘન્ય સ્થિતિને અભાવ હેય छ. मेथी भध्यानात मी यता नथी. मे पात 'एए चेव तिन्नि गमगा' આ સૂત્રપાઠથી સૂત્રકારે પ્રગટ કરેલ છે. આ રીતે અહિયાં પ્રથમના જ ત્રણ अभी थाय छे. 'सेसा न भण्णेति' ष-मन्तन मन मध्यन। 3-3 ay ગમે એટલે કે છ ગમે થતા નથી, આ કથનનું તાત્પર્ય એ જ છે કે–સર્વાર્થ સિદ્ધના દેવ અજઘન્ય અનુકુષ્ટ સ્થિતિવાળા હોય છે. આ કારણે જઘન્ય સ્થિતિના અભાવમાં મધ્યના ત્રણ ગમો અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિના અભાવમાં છેલ્લા ત્રમે ત્યાં થતા નથી.
'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति' के लापन मनुष्य आतिभा यावीसभा રહેલા જીના ઉત્પાત વિગેરે-વિષયમાં આ૫ દેવાનુપ્રિયે જે પ્રમાણે કહ્યું છે,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫