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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २० पु०५ मनुष्येभ्यः पं. तिरश्चामुत्पातः
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उत्रवज्जेज्जा' उत्कर्षेणापि त्रिपल्योपमस्थितिकतिर्यग्योनिकेषु उपपद्येत 'एसचे व लगी जब सत्तमगमे' एषैव लब्धिः परिमाणादि माप्तिः यथैव सप्तमगमके, सप्तम गमके यद् यत् कथितं तत्तत् सर्वमिहापि वक्तव्यम् । कायसंवेधमाह - 'भवादेसेणं दो भवगणाई' मवादेशेन द्वे भवग्रहणे 'कालादेसेणं जहन्नेगं तिन्नि पलिओमाई पुबकोडी अमहियाई' कालदेशेन - कालापेक्षया जयन्येन त्रीणि पल्योपमानि पूर्वको चाऽभ्यधिकानि 'उक्कोसेण वि तिनि पलिओ माई पुञ्चकोडीए अमहियाई' उत्कर्षेणापि श्रीणि पल्योपमानि पूर्व कोट्याऽभ्यधिकानि । 'एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं कालं मनुष्यगतिं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतिं च सेवेत, तथाएतावत्कालपर्यन्तमेव मनुष्यगत पञ्चेन्द्रियतिर्यगतौ च गमनागमने कुर्यादिति नवमो गमः ९ ॥ म्रु० ५ ॥
ज्जेज्जा' जघन्य से तीन परयोपम की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है और 'उक्को सेण वि' उत्कृष्ट से भी वह 'तिपलिओमएस उबवज्जेज्जा' तीन पस्योपम की स्थितिवाले पथेंन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है । 'एस चेव लद्धी जहेब सत्तत गमे' परिमाण आदि की प्राप्ति रूप लब्धि जैसी सप्तम गम में कही गई है । वैसी वह सब यहां पर भी कह लेनी चाहिये ! यहाँ काय संवेध 'भवादेसेणं०' भषादेश से दो भवों को ग्रहण करने रूप है और 'काला' देसेणं' कालादेश से वह जघन्य से पूर्वकोटिं अधिक तीन पल्योपम का है और 'उक्कोसेणं वि' उत्कृष्ट से भी वह एक पूर्वकोटि अधिक तीन पापम का है ! 'एवइयं जाव करेज्ज।' इम प्रकार इतने काल तक वह जीव मनुष्यगति का और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्गति का सेवन करता है। तथा इतने ही काल तक वह उस मनुष्यगति में और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्गति मैं गमनागमन करता है। ऐसा वह नौवां गम है । सू०५ ॥
'तिपलिओ मट्ठिएस उववज्जेज्जा' पयेोपमनी स्थितिवाणा पाथेन्द्रिय तिर्यथयोनि मां उत्पन्न थाय छे. 'एस चेव लद्धी जद्देव सत्तमगमे' परिभाष વિગેરેની પ્રાપ્તિ રૂપ લબ્ધિ જે રીતે સાતમા ગમમાં કહેલ છે. એજ રીતે તે સઘળી લબ્ધિ સંબધી કથન, અહિયાં કહેવું જોઈએ. અહિયાં કાયસ વેધ 'भवादेसेणं०' लवादेशथी मे लवाने श्रद्धय २वा ३५ छे भने 'कालादेखेणं०' श्रसादेशथी ते धन्यथी पूर्व अटि अषत्र होने! छे भने 'उपो. सेणं वि०' उद्धृष्टथी पशु तेथे पूर्व अटि अधियु पयोभने छे. 'एवइयं जाव करेज्जा' मे रीते आरसा अण सुधी ते व मनुष्य गतिनु भने પચેન્દ્રિયતિય ચ્ ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ મનુષ્ય ગતિમાં અને પંચેન્દ્રિયતિય ચ ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે, એ પ્રમાણે આ નવમે ગમ કહ્યો છે. સૂ. પા
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫