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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२० सू०५ मनुष्येभ्यः पं. तिरश्चामुत्पातः ३११ जघन्येन द्वौ अन्तर्मु हतौं 'उको सेणं चत्तारि पुषकोडीओ चउहि अंतोमुत्तेहि अमहियाओ' उत्कर्षेण चतस्रः पूर्वकोट्यः चतुमिरन्तर्मुहरभ्यधिकाः एतावत्काल पर्यन्तं निर्यग्योनिकगति मनुष्यगतिं च सेवेत तथा-एतावत्कालपर्यन्तमेव उभयनतौ गमनागमने कुर्यादिति द्वितीयो गमः २ । तृतीयगमं दर्शयत्राह-'सो
व उक्कोस०' इत्यादि । 'सो चेत्र उक्कोसकालटिहएसु उववन्नो' स एव-संज्ञि. मनुष्य एव उत्कृष्टकालस्थितिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु उत्पनो भवेत् यदि तदा -'जहन्मेणं तिपलिओवमद्विइएसु' जघन्येन त्रिपल्योपमस्थिति केषु पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकेषु 'उक्कोसेण वि तिपलिओवमट्टिएम' उत्कर्षेणापि त्रिपल्योपमः स्थितिकेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु उत्पद्यते, 'सच्चेव वत्तव्धया सैध वक्तव्यता माल की अपेक्षा तो जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्त का है, परन्तु 'उकोसेणं उत्तारि पुव्वकोडीओ चाहिं अंतोमुहुत्तेहिं अमहियाओ' उत्कृष्ट से यह चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि का है । इस प्रकार वह जीव इतने काल तक तिर्यग्योनिक गति का और मनुष्य गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उस गति में गमनागमन करता है। इस प्रकार से यह द्वितीय गम है।
तृतीय गम इस प्रकार से है--'सो चेव उक्कोस.' वही संज्ञी मनुष्य यदि उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होने के योग्य है तो वह 'जहन्नेणं तिपलि प्रोवमहिएम' जघन्य से तीन पल्यापम की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चों में उत्पन्न होता है
और 'उक्कोसेण वि तिपलिओवमटिइएस०' उत्कृष्ट से भी वह तीन पल्योपम की स्थिति वाले पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चों में उत्पन्न होता है। अपेक्षाथी धन्यथी में मत तना छे. परंतु 'उक्कोसेणं चत्तारि पुब्नकोडीओ चउहिं अंतोमुत्तेहि अमहियाओ' थी ते या२ मन्तभुत અધિક ચાર પૂર્વકેટિને છે. આ રીતે તે જીવ આટલા કાળ સુધી તિયચ યોનિની ગતિનું સેવન કરે છે, અને એટલા જ કાળ સુધી તે એ ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે. આ રીતે આ બીજે ગમ કહ્યો છે. ૨
वे श्रीन गम उपामा मावे छे-'सो चेव उक्कोस.' ये सजी મનુષ્ય જે ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયતિર્થં ચ યોનિકમાં उत्पन्न वान योग्य छ, तो 'जहन्नेणं तिपलिओवमदिइएस' वन्यथी त्रय પાપમની સ્થિતિવાળા સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિયતિય એમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને 'उक्कोंसेणं वि तिपलिओंवमदिइएसु' थी ५५ त्रण ५यो५मनी स्थिति. पासशी ययन्द्रियतिय य योनिमा पस्न थाय छे. 'सच्चेष.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫