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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१२ सू०६ नागकुमारेभ्यः समुत्पातादिनि० १५९ द्वे पल्योपमे, देशोनद्विपल्योपमात्मिका उत्कृष्टतः स्थितिः पूर्वप्रकरणे जघन्यतो दशवर्ष सहस्रामिका उत्कृष्टतो देशोनद्विपल्योपमा स्थितिरिति भवत्येव पूर्वापेक्षया वैलक्षण्यमिति। 'एवं अगुबंधो वि' एवं स्थितिवदेव अनुबन्धोऽपि जघन्येन दशवर्षसहसात्मकः, उत्कृष्टतो देशोनद्विपल्योपमात्मक इति कायसंवेधस्तु भवापेक्षया पूर्वपकरणवदेव द्विभवग्रहणपमाणकः, 'कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तममहियाई' कालादेशेन-कालापेक्षया जघन्येन दशवर्षसहस्राणि अन्तमुंहूर्ताभ्यधिकानि 'उक्कोसेणं देवगाइं दो पलिओवमाई बावीसाए वाससहस्सेहि अब्भहियाई उत्कर्षेण देशोने द्विपल्योपमे द्वाविंशत्या वर्षसहस्रैरभ्यधिके, काला. पेक्षया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकदशवर्ष सहस्रात्मकः कायसंवेधः, उत्कृष्टतो द्वाविंशतिवर्ष सहस्राधिकदेशोनद्विपल्योपमात्मकः कायसंवेध इति भावः ।। ‘एवं देमूणाई दो पलिओवमाई' इत्यादि सूत्रपाठ द्वारा प्रकट करते हैं-इससे उन्होंने यह कहा है कि नागकुमारों की स्थिति जघन्य से दश हजार वर्ष की है पर उत्कृष्ट से वह कुछ कम दो पल्योपम की है, पूर्व प्रकरण में यद्यपि जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है, पर उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक सागरोपम की कही गई है, पर यहां ऐसी नहीं कही गई है, यहां तो वह जघन्य दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ कम दो पल्योपम की कही गई है। 'एवं अनुबंधी वि' स्थिति के जैसा ही यहां अनुबन्ध है। तथा कायसंवेध भव की अपेक्षा पूर्व प्रकरण के जैसे ही दो भवों को ग्रहण करने रूप है, एवं काल की अपेक्षा वह जघन्य से, एक अन्तर्मुहूर्त्त अधिक दश हजार वर्ष का है और उत्कृष्ट से २२ हजार वर्ष अधिक देशोन द्विपल्योपमात्मक है, 'ठिई जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइ' त्या સૂત્ર પાઠથી બતાવેલ છે. આ સૂત્રથી તેઓએ એ સમજાવ્યું છે કે-નાગકુમારની સ્થિતિ જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની છે. પરંતુ ઉત્કૃષ્ટથી તે કંઈક ઓછી બે પોપમની છે. પહેલાના પ્રકરણમાં જે કે જઘન્ય સ્થિતિ દસ હજાર વર્ષની કહે ામાં આવી છે. પરંતુ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાતિરેક કંઈક વધારે સાગરોપમની કહી છે પરંતુ અહિયાં તે પ્રમાણે કહ્યું નથી. અહિયાં તે તે જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક ઓછી બે પલ્યોપમની કહી छे. 'एवं अणुबंधो वि' स्थितिमा थन प्रमाणे महियां मनुम धनु थन ५५५ સમજવું તથા કાયસંવેધ ભવની અપેક્ષાથી પહેલા પ્રકરણ પ્રમાણે જ છે. એટલે કે ભવની અપેક્ષાથી બે ભવોને ગ્રહણ કરવા રૂપ છે. અને કાળની અપેક્ષાથી તે જઘન્યથી એક અંતમુહૂર્ત અધિક દસ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫