________________
५६०
भगवती सूत्रे
नाशुभानीति भावः । विशेष जिघृक्षुभिः रत्नप्रभामकरणमेव द्रष्टव्यम् । एतदेवदर्शयति- 'अवसेसं तं चेत्र' अवशेषम् - अध्यवसानातिरिक्त सर्व तदेव-रश्नप्रभाकरणपठितमेव अवगाहना समुद्घातलेश्पादृष्ट्यादिकं सर्वनपि तदेव रत्नप्रभाप्रकरणपठितमेवेति भावः । 'जइ सन्निपंचिदियतिरिक्खजोगिएहिंतो उबवज्जंति' यदि संशिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य उत्पद्यन्ते तदा- 'कि संखेज्जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए हिंतो उववज्जंति' किं संख्येय वर्षायुक संज्ञि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेभ्य आगत्यासुरकुमारा उत्पद्यन्ते अथवा'असंखेनासाउ यसभिपंचिदियतिरिक्ख जोणिए हिंतो उवबजेति' असंख्ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव जो कि उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पत्ति के योग्य होता है 'ऐसा यह छड्डा गम है। ये ही मध्य के तीन गम यहां गृहीत हुए हैं, इन तीनों गमों में उसके अध्यवसान प्रशस्त ही होते हैं। विशेष जिज्ञासुओं को इसके लिये प्रथम उद्देशक के रत्नप्रभा प्रकरण को देखना चाहिये । 'अव सेसं तं 'वेव' इस सूत्रपाठ द्वारा यह समझाया गया है कि-अध्यवसान के इस प्रकार के कथन के सिवाय और सब अवगाहना समुद्घात आदि का कथन रत्नप्रभा प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही है।
उवव०,
'जइ सन्नि पंचिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जेति' इस सूत्र - पाठ द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! यदि असुरकुमार संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं तो क्या वे 'संखेज्जवासाउथ सन्नि पंचिदियतिरिक्ख जोणिएहिंतो 'असंखेज्जवासाज्य सनिपचिदिय ति० उ०' संख्यात वर्ष અસુરકુમારના ભવમાં ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય તે પર્યાપ્ત સન્ની પ'ચેન્દ્રિય અહિયાં ગ્રહણ કરાયા છે. આ ત્રણે ગમેામાં તેઓના અધ્યવસાન પ્રશસ્તજ હાથ છે. વિશેષ જીજ્ઞાસુએએ પહેલા ઉદેશાના રત્નપ્રભા પ્રકરણમાં જોઈ सेव'. 'अवसेसं तं चेव' या सूत्रपाथी से सभलववामां भाव्यु छे हैंઅધ્યવસાન ખાળતમાં આ કથન શિવાય બાકીનું અવગાહના, સમુદૂધાત, વિગેરે તમામ કથન રત્નપ્રભા પ્રકરણમાં જેવી રીતે તે કહેવામાં આવેલ છે, ते प्रभानु छे.
'जइ सन्निपंचिदियरिक्खजोणिएहिंतो उबवज्जंति' मा સૂત્રપાઠ દ્વારા ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવુ' પૂછ્યું છે, કે હે ભગવન્ જો અસુર કુમાર સ’જ્ઞી પાંચેન્દ્રિય તિય ચ ચેાનિકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે તે શું તે'स' खेज्जवासाउयसन्निप' चिंदियतिरिक्खजाणिपड़ितो उववज्जंति' असंखेज्जवासाउग्रसन्नि पंचिदियति. उववज्जंति' संध्यात वर्षांनी आयुष्यवाणा संज्ञी पंचेन्द्रिय
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪