SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४४ भगवतींसूत्रे 'संवेहो उप जिऊण भाणियन्यो' कायसंवेधश्च उपयुज्य भणितव्यः, भवादेशेन भवद्वयग्रहणं कालादेशेन जघन्यतो द्वाविंशतिः सागरोपमाणि वर्ष पृथक्त्वाभ्यधिकानि उत्कृष्टतश्च वर्ष पृथक्त्वाभ्यधिकत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीति ४ एवं पञ्चमषष्ठ गमावपि ज्ञातव्यौ ५।६। अथ सप्तमं गममाह 'सो चेव' इत्यादि । 'सो चेव अप्पणा उक्कोसकालहिइओ जामो तस्स वि तिमु वि गमएसु एस चेव वत्तव्यया' यदि स एव मनुष्य आत्मना स्वयमुत्कृष्ट कालस्थितिको भवेत् सप्तमनरकयायी भवे. तदा तस्याऽपि त्रिष्वपि गमेषु एषेव पूरै होरितैत्र वक्तव्यता अध्येतव्या कियत्कालस्थितिकेषु नैरयिके पूत्पद्यते, एकसमये कियन्त उत्पधन्ते जघन्येन द्वाविंशति सागरोपमस्थिति केषु उत्कृष्ट तस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिकेषु नारकेषु उत्पयन्ते से वर्ष पृथक्त्व का ही है। 'संघहो उवजुजिऊण भाणियव्वो' कायसंवेध भव की अपेक्षा भवद्वय ग्रहण रूप है, एवं काल की अपेक्षा वह जघन्य से वर्ष पृथक्त्व अधिक २२ सागरोपमका है और उस्कृष्ट से वर्ष पृथक्त्व अधिक ३३ सोगरोपम का है इस प्रकार विचार यहां पांचवां छठा गम भी कह देना चाहिये । ४ ।५।६। 'अब सातवां गम कहते हैं-'सो चेव' इत्यादि । 'सो चेव अप्पणा उक्कोसकालहिहो जाओ, तस्स वितिसु गमएसु एस चेव वतव्यया' यदि वही मनुष्य जो कि उत्कृष्ट स्थिति को लेकर उत्पन्न हुभा है और सप्तम नरक में जाने के योग्य है तो उसके भी तीनों गमों में यही पूर्वोदीरित वक्तव्यता वक्तव्य है, अर्थात् यह जघन्य से २२ सागरोपम की स्थितिवाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है, तथा एक समय में वहां कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? तो 'संवेहो उवजुजिऊण भाणियव्वो' यस ३५ मवनी अपेक्षा में अपना ગ્રહણ રૂપ છે. અને કાળની અપેક્ષાથી તે જઘન્યથી વર્ષ પૃથકૃત્વ અધિક ૨૨ બાવીસ સાગરોપમને છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વકેટિ અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગश५मना छ. ४-५-६ 'सोचेव अप्पणा उकोसकालट्टिइओ जाओ,' तस्स वि तिसु गमएसु एसचे वत्तव्वया' ने or मनुष्य रे ष्ट स्थितिथी ઉત્પન્ન થાય છે. અને સાતમી નરકમાં જવાને ગ્ય છે. તે તેને ત્રણે ગમમાં આ પહેલા કહેલ કથન જ કહેવાનું છે. અર્થાત્ તે જઘન્યથી ૨૨ બાવીસ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા નરયિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમની સ્થિતિવાળા નિરયિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તથા એક સમયમાં ત્યાં કેટલા નરયિકે ઉત્પન્ન થાય છે ? તે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં જઇ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy