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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०८ श० षष्ठपृथ्वीगतजीवानामुदिकम् ५४३ कियन्त उत्पद्यन्ते इत्यादि प्रश्नोत्तरं सर्वमपि प्रथमगमवदेव वक्तव्यं यथा स जघन्योस्कृष्टाभ्यां द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिके पूत्पद्यते स्वस्य जघन्यस्थितिकत्वात् तथा ते तत्र एकसमये जघन्येन एको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्याता उत्पद्यन्ते इति भावः 'नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं रयणिपुहुत्त' नवरम्-केवलमेतावान् विशेषः प्रथमगमा. पेक्षया शरीरावगाहना जघन्येन रलिपृथक्त्वम् द्विहस्तादारभ्य नवहस्तपरिमिता भव ति, 'उको सेणवि रयणिपुहुतं' उत्कर्षेणाऽपि रत्निपृथक्त्वं हस्तद्वयादारभ्य नवह स्तपर्यन्तमिति। ठिई जहन्नेणं वासपुहुत्त स्थितिर्जघन्येन वर्ष पृथक्त्वं द्विवर्षादारभ्य नववर्ष पर्यन्तम् तथा 'उक्कोसेण वि वासपुहुत्तं' उत्कर्षेणाऽपि स्थितिवर्ष पृथक्त्वम् । एवं अणुबंधो वि एवमे -स्थितिवदेव अनुवन्धोऽपि जघन्योत्कृष्टाभ्यां वर्षपृथक्त्वमेव । में वहां किनने नैरयिक उत्पन्न होते हैं इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में प्रथमग मोक्तवक्तव्यता यहां पूर्ण रूप से कहलेनी चाहिये, जैसे-वह जवन्य और उत्कृष्ट से बाईससागरोपमकीस्थितिवालों में उत्पन्न होता है, तथा वे वहां एकसमय में जघन्यसे एक दो अथवा तीन उत्पन्न होते हैं, उत्कृष्ट से संख्यात उत्पन्न होते हैं, परन्तु उस वक्तव्यता से यहाँ की वक्तव्यता में जो अन्तर है वह 'नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं 'इत्यादि सूत्र पाठ द्वारा सूत्रकार ने इस प्रकार से प्रकट की है कि-यहां पर प्रथमगमोक्त शरीरावगाहना की अपेक्षा जो अवगाहना है वह जघन्य से रत्नि पृथक्त्व है-दो हाथ से लगाकर नौ हाथ तक की हैऔर उत्कृष्ट से भी रस्निपृथक्त्व की है तथा स्थिति यहां जघन्य से वर्ष पृथक्त्व है और उत्कृष्टसे भी वर्षपृथक्त्व की है-दो वर्ष से लेकर नौ वर्ष तक की है-'एवं अणुबंधो वि' इसी प्रकार से अनुबन्ध भी जघन्य और उत्कृष्ट સમયમાં ત્યાં કેટલા નરયિકે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ બને પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પહેલા ગામમાં કહેલ કથન પુરેપૂરી રીતે અહિયાં કહી લેવું જોઈએ. પરંતુ ते थन २ता मा ४थनमा २ ३२०२ छ, ते 'वे नवरे सरीरोगाहणा जहण्णेणे' વિગેરે સૂત્રપાઠ દ્વારા સૂત્રકારે આ રીતે બતાવેલ છે કે-અહિયાં પહેલા ગમમાં કહેલ શરીરની અવગાહનાની અપેક્ષાએ જે અવગાહના છે, તે જઘ ન્યથી રનિ પૃથક્વની છે. એટલે કે બે હાથથી લઈને ૯ નવ હાથ સુધીની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ તે રનિ પૃથફત્વ જ છે. તથા સ્થિતિ અહિયાં જઇ ન્યથી વર્ષ પૃથક્વ અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ વર્ષ પૃથક્વ છે. એટલે કે બે વર્ષથી स न१ वर्ष सुधीनी छे. 'एवं अणुबंधो वि' से शत अनुमध ५५ જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી વર્ષ પૃથફત્વનેજ છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૪