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________________ ५४० भगवती सूत्रे नारकस्य सप्तमनरकान्निःसृतस्य मनुष्येषु अनुत्पादेन भवद्वयस्यैव सद्भावेन eared एव कालस्य संभवादिति । 'एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं यावत्कुर्यात् एतावन्तमेव कालं मनुष्यगतौ सप्तमनरकगतौ च गमनागमने कुर्यादिति प्रथमो गमः । 'सो चेव जहन्नकालट्ठिएस उववन्नो०' स एव मनुष्यो जघन्यकालस्थितिकसप्तमनरक पृथिव्याः सम्बन्धिनैरयिकेषु यदि उत्पद्येत तदा- 'एस चैव वतव्वया' एषैव वक्तव्यता वक्तव्या, जघन्येनोत्कृष्टेन च द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु नैरविकेत्पद्येत हे मदन्त! ते नारकाः सप्तमनरकावासे एकसमयेन कियन्त उत्पद्यन्ते इति प्रश्नस्य जघन्येन एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कृष्टतः संख्याता वा जायन्ते नारक का मनुष्यों में उत्पाद नहीं होता है, किन्तु तिर्यश्चों में ही उत्पाद होता है, अतः भवद्वय के ही सद्भाव से इतने हो काल का सद्भाव होता है, 'एवइयं जाव करेज्जा' अतः इतने ही काल तक वह मनुष्य गति में और नरक गति में गमनागमन करता है ऐसा कहा गया है। ऐसा यह प्रथम गम है । 'सो चेव जहन्नका लट्ठिएस उबवन्नो०' यदि वही मनुष्य जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तम नरक पृथिवी सम्बन्धी नैरयिकों में उत्पन्न होने के योग्य है तो 'एस चेव वक्तव्वया' यहां पर भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिये, अर्थात् वह वहां जघन्य से और उत्कृष्ट से भी २२ बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है, अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं 'ते णं भंते जीवा एगसमएणं केवइयो उववज्जति' हे भदन्त ! वे जीव सप्तम नरक में एक समय में कितने થતા નથી. પરંતુ તિય ચામાં જ ઉત્પાક થાય છે. જેથી એ ભવાના સ लावधी गोटसेो हा होय छे. 'एवइयं जाव करेज्जा' भेथी भेटलान आज સુધી તે જીવ મનુષ્ય ગતિમાં અને નરક ગતિમાં ગમનાગમન કરે છે. એ પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યુ છે. એ રીતે આ પહેલેા ગમ કહ્યો છે. ૧ 'सो चेव जहन्नका लट्ठिइएस उववन्ना०' ले पेन मनुष्य જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા સાતમી નરક પૃથ્વીના નૈરિયકામાં ઉત્પન્ન થવાને ચેગ્ય होय ते! 'एस चैव वत्तव्वया' मडियां पशु मेन उथन अहेवु लेह थे. अर्थात् તે જઘન્યથી ત્યાં ૨૨ ખાવીસ સાગરાપમની સ્થિતિવાળા નાયિકામાં ઉત્પન્ન થાય थे. હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે કે'वे णं भंते ! जीवा एगसमपणे केवइया उववज्जंति' हे भगवन् ते नारमै સાતમા નરકાવાસમાં એક સમયમાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્ત શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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