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________________ સુર भगवतीस्त्रे कः संशिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको जघन्यस्थितिकसप्तमनारक पृथिवीसंबन्धिनारकतया उत्पद्यते इत्यारभ्य अत्रविषये अनन्तरोक्तश्चतुर्थी गमः कालादेशपर्यन्तः संपूर्णोऽपि वक्तव्य इति पञ्चम५॥ 'सो चेव उक्कोसकालट्टिश्सु उववन्नो०' स एव जघन्यायुष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक उत्कृष्टकालस्थिविकसप्तमनरकपृथिवीसंवन्धिनारकतयोत्पत्स्यमानः सकियकालस्थितिकनैरयि के नृत्यद्येत 'सच्चेव लदी जाव अणुबंधोति' से लन्ध इति अत्रापि अनुबन्धपर्यन्तं सर्वमपि पूर्ववदेव अत्येतव्यम् । 'भवादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई' भवादेशेन जघन्येन त्रीणि भरग्रहणानि 'उक्को से पंचभवरगहणाई' उत्कर्षेण पञ्चमवग्रहणानि, 'काळादेसेणं जहन्नेणं' काला देशेन - कालापेक्षया जघन्येन, 'तेत्तीसं सागरोमा दोहिं अंतोमुहतेहिं अमडिया" त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि द्वाभ्यामन्तर्मुहूर्त्ताभाणियो' वही चतुर्थ गम सम्पूर्ण रूप से कालादेश तक कह लेना चाहिये। ऐसा यह पांचवां गम हैं |५| " 'सो चे उateकालट्टिएस उवबन्नो०' यदि वही जघन्य आयुवाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तम नरक पृथिवी सम्बन्धी नारक की पर्याय से उत्पन्न होने के योग्य है तो वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'सच्चेव लद्वी जाव अणुबंधोत्ति' हे गौतम । यहां पर अनुबन्ध तक समस्त कथन पूर्वोक्त जैसा ही कहलेना चाहिये, 'भवादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाइ' भव की अपेक्षा यहाँ जघन्य से तीन भवों को ग्रहण करने तक और उत्कृष्ट से पांच भवों को ग्रहण करने तक तथा काल की अपेक्षा जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्तों से अधिक ३३ सागरोपम यांयभी गम छे. 'म्रो चेत्र उक्कोसकालट्ठिइएस उववन्नो' ले ते धन्य आयुવાળા સ`ગી પચેન્દ્રિય તિય ચ ચેાનિવાળા જીવ ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિ વાળા સાતમી નરક પૃથ્વીના નારકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થવાને ચેાગ્ય હેાય તે તે કેટલા કાળની સ્થિતિવાળા નૈરિયકામાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ! छे ! - 'सच्चेत्र लद्धी जाव अणुबंधोत्ति' हे गौतम! मडियां अनुषधना उथन सुधीतुं सघणु उथन पडेसां उद्या प्रभा ४ उडी सेवु 'भवादे से णं जद्दन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई' भवनी अपेक्षाथी मडियां न्धन्यथी त्रयु ભવાને ગ્રહણ કરતાં સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી પાંચ ભવાને ગ્રહણ કરતા સુધી તથા કાળની અપેક્ષાએ જઘન્યથી એ અંતર્મુહૂત'થી અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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