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________________ प्रमेयन्द्रिका टीका श०२० उ०६ सू०२ अप्कायिकजीवपरिणामनिरूपणम् ३५ शेषं तदेव यदेव पृथिव्यादौ कथितं तदेव इहापि, ज्ञातव्यमिति । 'जाव अणुत्तरविमाणाणं इसोपभाराए य पुढवीए अंतरा समोहए' यावदनुत्तरविमानानाम् ईषत्माग्मारायाश्च पृथिव्या अन्तरा समवहतः 'समोहणित्ता जे भविए घणवायतणुवाय-घगवायतणुवायवल रसु वाउकाइयत्ताए उवच ज्जित्तए' समवहत्य यो भव्यः घनवाततनु वातयोर्घनवाततनुवातयोवलयेषु वायुकायिकतयोत्पत्तुम् 'सेसं तं चेव' शेष तदेव एव्यतिरिक्तं प्रश्न शाक्यनुत्तरवाक्यं च पृथिवीपकरणवदेव ज्ञातव्यम् , 'जाव से तेणद्वेणं नाव उववज्जेज्जा' यावत् तत्तेनार्थेन यावदुरुपयेत पृथिवी आदि में कहा गया है वैसा ही है। 'जाव अणुत्तरविमाणाण इसीपन्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए' इसी प्रकार से ऐसा भी कथन करना चाहिये कि जो वायुकायिक जीव यावत् अनुत्तर विमानों के और ईषत्प्रारभारा पृथिवी के अन्तराल में मरणसमुद्घात करता है और मरणसमुद्घात करके वह घनवात में, तनुवात में, घनवात. चलयों में और तनुवातवलयों में वायुकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य हुआ है 'सेसं तं चेव' ऐसा वह वायुकायिक जीव क्या पहिले आहार ग्रहण करता है बाद में वहां उत्पन्न होता है ? या पहिले वहां उत्पन्न होता है और बाद में आहार ग्रहण करता है ? तो इस प्रश्न के उत्तर में भी प्रभु ने पूर्वोक्त रूप से ही कहा है अर्थात् पृथिवी प्रकरण के जैसा ही यहां प्रश्नवाक्य और उत्तरवाक्य कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये, 'जाव से ते गट्ठणं जाव उववज्जेज्जा' इस प्रकार से यहां 'यावदुत्पद्येत' यहां तक का सब प्रकरण जानना चाहिये इस अभाचे छ. 'जाव अणुत्तरविमाणाणं इसीपभाराए य पुढवीए अंतरा समोहए' એ જ રીતે એવું પણ કહેવું જોઈએ કે જે વાયુકાયિક જીવ યાવત્ અનુત્તર વિમાનના અને ઈષત્રાબ્બારા પૃથ્વીની મધ્યમાં મરણ સમુદ્દઘાત કરે છે અને મરણ સમુદ્રઘાત કરીને તે ઘનવાતમાં તનુવાતમાં ઘનવાતવલમાં અને તનુपात १सयोमा वायुथि:५४थी ६पन्न थाने योग्य थयेस छ. 'सेसं तं चेव' એ તે વાયાયિક જીવ પહેલાં આહાર ગ્રહણ કરે છે? તે પછી ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા પહેલાં ત્યાં ઉત્પન્ન થઈને તે પછી આહાર ગ્રહણ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુએ પૂર્વોક્ત રૂપથી જ કહ્યું છે. અર્થાત્ પૃથ્વિકાયિકના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ અહિયાં પ્રશ્નવાકય અને ઉત્તર १।४५ ४९ छ. म समन्यु'. 'जाव से तेणटेणं जाव उववज्जेज्जा' मा शत माडियां यावदुत्पद्येत' मा ४थन सुधार्नु तमाम प्रयन मलियां समय: શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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