SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ भगवतीसुत्रे शर्कराम नादि द्वितीयादि पृथिव्यां जघन्यत उत्कृष्टतश्वापि सागरोपमाण्येव वक्तव्यानि । रत्नप्रभागमतुल्या नवापि गमाः कियत्पर्यन्तं ज्ञातव्याः ? तत्राह - ' एवं जाव इत्यादि । ' एवं जाव छपुवीत्ति' एवं यावत् षष्ठपृथिवीति, शर्करामभात आरभ्य षष्ठ पृथिवी तमा तत्पर्यन्तं जीवानां सर्वे गमा रत्नप्रभाशर्करापृथिवी वदेवगन्तव्या इति । अत्रापि यद्वैलक्षण्यं दर्शयति- 'नवर' इत्यादि, 'नवरं नेरइयठिई जा जत्थ पुढवीए जहन्नुकोसिया सा तेर्ण चैव कमेणं चउगुणा कायन्त्रा' नवर नैरथिक स्थिति य यत्र पृथिव्यां जघन्या उत्कृष्टा वा सा तेनैव क्रमेण चतुर्गुणा कर्तव्या, कस्यां पृथिव्यां कियतीस्थितिरिति गाथा द्वयेनाह एक सागरोपम ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, परन्तु शर्कराप्रभा आदि पृथिवीयों में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार के कथन में सागरोपम शब्द का ही प्रयोग करना चाहिये, ये रत्नप्रभा सम्बन्धी नौगमों की तुल्यतावाले अन्य इतर पृथिवियों के नौ गम छुट्टी पृथिवी तक ही जानना चाहिये, यही बात 'एवं जाव छट्टु पुढवीत्ति' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गयी है । अर्थात् शर्करा प्रभा से लेकर छठी तमा पृथिवी तक वहां के जीवों के समस्तगम रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा के जीवों के जैसे हैं। परन्तु यहां पर भी जो भिन्नता है - उसे सूत्रकार 'नवर " इत्यादि पाठ द्वारा प्रगट करते हैं-नवर नेरइघटिई जा जस्थ पुढवीए जहन्नुकोसिया सा तेणं चेव कमेणं चउगुणा कायव्वा' वे इस पाठ द्वारा यह समझा रहे हैं कि जहां पर जितनी नैरयिक की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट है उसे उसी के अनुसार चौगुनी कर लेना चाहिये, किस पृथिवी થેના શબ્દોના પ્રયાગ કરવામાં આવ્યા છે. પરંતુ શર્કરાપ્રભા વિગેરે ખીજી પૃથ્વીયામાં જધન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ બન્ને પ્રકારના કથનમાં સાગરોપમ શબ્દેનેજ પ્રયાગ કરવે! જોઇએ. રત્નપ્રભા સબંધી નવ ૯ ગમાની સમાનતાવાળા અંતર पृथ्वीयोना नव गभो छठ्ठी पृथ्वी सुधीन लावा. मेवात 'एवं जाव छट्ठी पुढवीति' मा सूत्रपाठ द्वारा अगर उस छे. अर्थात् शशलाथी बने છઠ્ઠી તમા પૃથ્વી સુધી ત્યાંના જીવાના બધાજ ગમા રત્નપ્રભા અને શકાપ્રભાના જીવાના કથન પ્રમાણે છે. પરતુ અહિયાં તે કથન કરતાં જે ભિન્નપશુ छे तेने सूत्रार 'नवरं' इत्याहि पाठ द्वारा प्रगट हरे छे, ते भा प्रभाव है - नवरं नेरइयठिई जा जत्थ पुढवीए जद्दन्नुक्कोसिया सा तेणं चेव कमेणं चरगुणा कायव्वा' तेथे या पाह द्वारा से समन्नवे छे है-न्यां भेटली नेशय. ક્રુની સ્થિતિ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી કહી છે, તેને તેજ પ્રમાણે ચાર ગણી કરવી જોઈએ. કઈ પૃથ્વીમાં કેટલી સ્થિતિ છે ? એજ વાત હવે આ એ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy