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________________ ४५४ भगवतींसूत्रे 'कालादेसेणे' कालादेशेन कालापेक्षया तु 'जहन्नणं सागरोवमं पुष्यकोडीए अमहिये' जघन्येन सागरोपमं पूर्वकोटयभ्यधिकम् 'उक्कोसेणं चत्तारि सामरोवमाई चउहि पुनकोडीहिं अब्भहियाई उत्कर्षेण चत्वारि सागरोपमाणि चतसृभिः पूर्वकोटिभिरभ्यधिकानि 'एवायं जाव करेजा' एतावद् यावत्कुर्यात् एतावत्काल. पर्यन्तं तिर्यग्गतिं नारकगतिं च सेवेत एतावदेव कालपर्यन्तं गमनं चागमनं च कुर्यादिति नवमो गम९ इति । एवमेए णव गमगा' एवमेते नवसंख्यकगमाः, तत्र सामान्यनारकेषु उत्पादः प्रथमो गम:१, 'पज्जत्त' इत्यादिस्तु द्वितीयो गमः२, 'सो चेव उक्कोसका.' इत्यादिस्तु तृतीयो गमा३ । 'जहन्नकालविश्य०' इत्यादिस्तु चतुर्थों गमः ४ । 'सो चेव जहन्नकाल' इत्यादिस्तु संज्ञिविषये पञ्चमो है उसी प्रकार का कथन भवादेश तक उसी के अनुसार यहां पर भी कहना चाहिये, काल की अपेक्षा कथन इस प्रकार से है-'कालादेसेणं जहन्नेणं सागरोत्रमं पुधकोडीए अमहियं' काल की अपेक्षा वह पूर्वक्ति विशेषणों वाला तिर्यग्योनिक जीव जघन्य से एक पूर्वकोटि अधिक एक सागरोपम तक और उत्कृष्ट से चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम तक तिर्यग्गति का और नरक गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता है, इस प्रकार का यह नौवा गम है, 'एवमेए णव गमगा' इस प्रकार से ये नौ गम हैं। इनमें सामान्य नारकों में जो उत्पाद है वह प्रथम गम है ? 'पज्जत्त' इत्यादि द्वितीय गम हैं ? सो चेव उकोसकाल.' इत्यादि तृतीय गम है, 'जहन्नकालविइयः' इत्यादि चतुर्थ गम है 'सोचेव जहन्नकाल' इत्यादि a'. नी पेक्षा समयानु थन मा प्रमाणे छे.-'कालाईसेणं जहन्नेणं सागरोवमं पुव्व कोडीए अमहियं' नी मपेक्षाथी ते पूरित विशेषता તિર્યંચ પેનિક જીવ જઘન્યથી એક પૂર્વકેટિ અધિક એક સાગરોપમ સુધી અને ઉકષ્ટથી ચાર પૂર્વ કેટિ અધિક ચાર સાગરોપમ સુધી તિય ગતિ અને નારકગતિનું સેવન કરે છે, અને એટલા જ કાળ સુધી તે તેમાં ગમનાગમન-આવજા કરતા રહે છે. मा प्रमाणे मानवमी गम छे. 'एवमेए नव गमगा' मा प्रमाणे २ न१ गम छे. मामा सामान्य ना२. भरपाई छ, ते । म छ. १ 'पज्जत्त०' त्याहिमा गमछे. २ 'सो चेव उक्कोसकाल.' त्या न गम छ. "जहन्नकालट्रिइय०' त्याल यो। म छ. ४ 'सोचेव जहन्न काल.' या संज्ञान विषयमा पायौ। શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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