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________________ મુદ્ भगवती सूत्रे , " कियस्पर्यन्तं चतुर्थो गमो वक्तव्यस्तत्राह - ' जाव कालादेसेणं' इत्यादि, संहननत आरभ्य 'कालादेसेणं' इति सूत्रमायाति तदवधि विज्ञेयः तथा च भवादेशेन जघन्यतो भवद्वयम् उत्कृष्टतोऽष्टभवग्रहणानि इति पर्यन्तं सर्वमपि वक्तव्यतया संग्राह्यम्, 'काल|देसेणं' काळापेक्षयेत्यर्थः ' जहन्नेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तमम्भहियं' जघन्येन सागरोपमान्तर्मुहूर्ताभ्यधिकम् उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई' उत्कर्षेण चत्वारि सागरोपमानि 'चउहि अंतोमुहुत्तेर्हि अमहियाई' चतुर्भिरन्तर्मुहूतैरभ्यधिकानि, 'एवइयं कालं सेवेज्जा, एवइयं कालं गइमागई करेज्जा' एतावन्तं कालं सेवेत, एतावन्तं कालं गत्यागती कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं स जघन्य स्थिति संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको जीवो रत्नप्रभापृथ्वीनर के गच्छेत् ततः पुन र्निःसृत्य तिर्यग्गतिमागच्छेदित्येवं रूपेणासेवनं गमनागमनं च भवतीति षष्ठो गमः | ६ | तक उत्पन्न होते हैं । यह चतुर्थ गमोक्त कथन यहां कहां तक का ग्रहण करना चाहिये इसके उत्तर में कहा गया है कि 'जाव कालादेसेणं' अर्थात् संहनन द्वार से लेकर 'कालादेसेणं' इस सूत्र तक का कथन यहां ग्रहण करके कह लेना चाहिये, तथा च-भव की अपेक्षा जघन्य से दो भवों को ग्रहण करने तक और उत्कृष्ट से आठ भव को ग्रहण करने तक वह जघन्य स्थितिवाला पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उस तिर्यग्गति का और नरक गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन किया करता है, इसी प्रकार से वह काल की अपेक्षा 'जहनेणं सागरोवमं अंतीमुत्तमन्महिये' कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त्त से अधिक एक सागरोपम तक और अधिक से अधिक 'कोसेणं चत्तारि सागरोयमाई चउहिं०' चार अन्तर्मुहूर्त्त अधिक चार આ રીતે ચે થા ગમમાં કહેલ કથત અહિયાં કયાં સુધીનું ગ્રહણુ કરવુ' જોઇ એ. या प्रश्नना उत्तरमा छे है- 'जाव काळादेसेणं' अर्थात् सहनन द्वारथी सने 'कालादेसेणं' या सूत्र उथन सुधीनु' उथन अडियां थड उरीने उडे જોઇએ તથાચ ભવની અપેક્ષાએ જઘન્યથી એ ભવાને ગ્રહણ કરતાં સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવેાને ગ્રહણ કરતાં સુધી તે જઘન્ય સ્થિતિ વાળા પચેન્દ્રિય ચેાનિવાળા જીવ એ તિય ચગતિનુ અને નારકગતિનું સેવન કરે છે, અને એટલાજ કાળ સુધી તે તેમાં ગમના ગમન-અવર જવર કર્યાં કરે છે. એજ रीते ते अजनी अपेक्षाये 'जहन्नेणं सागरात्रमं अंतोमुहुत्तमन्महियं' श्रोछामां એાછા એક અંતર્મુહૂત અધિક એક સાગરોપમ સુધી અને અધિકથી અધિક भेटले } बघारेमा वधारे 'उक्कोसेणं चत्तारि सागरावमाई' चउहि ० ' यार શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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