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________________ ४३६ भगवती सूत्रे कालादेशेन - कालवकारेण कालापेक्षयेत्यर्थः, जघन्येन सागरोपममन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकम् अन्तर्मुहूर्त्ताधिकसागरोपमकालपर्यन्तं सेवेत गमनागमने च कुर्यादिति । 'उक्कोसेण' उत्कर्षेण 'चत्तारि सागरोदमाई' चत्वारि सागरोपमाणि, 'चउहि पुब्वकोडीहि अमहियाई' चतसृभिः पूर्वकोटिभिरभ्यधिकानि 'एवइयं कालं सेवेज्जा' एतावत्कालपर्यन्तं संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गति अनमभादि पृथिवीनारकगतिं च सेवेत, तथा - 'एवइयं कालं गहराई करे छजा' तावत्कालपर्यन्तं गत्यागती - गमनागमने कुर्यादिति तृतीयो गमः | ३ | अथ चतुर्थ गमं निरूपयति- 'जहन्नका लट्ठिय ० ' इत्यादि, 'जहन्न काल डिइयपज्जत्तसंखेज्ज व साउयसणिपंचिदियतिरिक्खजोणिए गं भंते !" जघन्यकाल स्थितिक पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्कसंज्ञि पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकः ast yoanोडीहिं अमहियाई' वह जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त अधिक एक सागरोपम तक और उत्कृष्ट से चार पूर्वकोटि अधिक चार सागरोपम काल तक उस गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक वह गमनागमन करता रहता है, तात्पर्य यही है कि वह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्गति का और रत्नप्रभा आदि नारक गति का जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त अधिक एक सागरोपम तक और उत्कृष्ट से चार पूर्व कोटि अधिक चार सागरोपम काल तक सेवन करता है और इतने ही काल पर्यन्त गमनागमन करता रहता है ऐसा यह तृतीय गम है | ३ | अब सूत्रकार 'जहन्नका लट्ठिय०' इत्यादि सूत्र द्वारा चतुर्थ गम का निरूपण करते हैं- इसमें गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'जहन्न काल पुवाडीह अमहियाइ" ते धन्यथी थे अंतर्मुहूर्त અધિક એક સાગરાપમ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી ચાર ૪ પૂર્કેટેિ અધિક ચાર સાગરી પમ કાળ સુધી તે ગતિનુ સેવન કરે છે. અને એટલાજ કાળ સુધી તે ગમના ગમન-અવર જવર કરતા રહે છે. કહેવાનું તાત્પ એજ છે કે–તે સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિય ચ ચેાનિવાળા જીવ પ`ચેન્દ્રિય તિય ચ ગતિનુ અને રત્નપ્રભા વિગેરે નારક ગતિનું જધન્યથી એક મંતર્મુહૂત અધિક એક સાગરોપમ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી ચાર પૂર્વકાટ અધિક ચાર સાગરેપમ કાળ સુધી સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી ગમનાગમન-અવર જવર કરતા રહે છે. આ પ્રમાણે આ ત્રીજો ગમ છે. डवे सूत्रा२ ' जहन्न कालट्ठिय०' इत्यादि सूत्र द्वारा थोथा गमनु निश्णु रे - तेमां गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछे छे है- 'जहन्नका लट्ठिय શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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