SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ भगवतीसूत्रे उज्जति' यदि जलचरस्थलचरखेचरेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते तदा 'किं पज्जत्तए. हितो उपवज्जति' किं पर्याप्तकेभ्य उत्पद्यन्ते अथवा 'अपज्जएहितो उववज्जति' अपर्याप्त केभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते हे भहन्त ! असंज्ञिपश्चेन्द्रियतियग्योनिकजल. चरेभ्य आगत्य अथवा तथाविधस्थल चरेभ्य आगत्य समुत्पद्यन्ते अथवा तथा. विध खेवरेभ्य आगत्य समुत्पद्यन्ते ते कि पर्याप्तकेभ्योऽपर्याप्तकेभ्यो वा आगत्योत्पद्यते इति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पज्जत्तएहितो उववज्जति' पर्याप्तकेभ्य उत्पद्यन्ते 'णो अपज्जत्तएहितो उपवज्जति' नो अपर्याप्तकेभ्य उत्पद्यन्ते नरके नारकाणाम् तथाविधपर्याप्तकानामेव उत्पत्ति भवति न तु अपर्याप्तकानामिति । 'पज्जत्तासभिपंचिदियतिरिक्खकी पर्याय से जीव उत्पन्न होते हैं। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते है-'जइ जलचरथलचरखहचरेहितो उववति -किं पज्जत्तएहितो उवबज्जति अपज्जत्तए० उ०' हे भदन्त ! यदि जलचर स्थलचर और खेचर इनसे आकरके जीव नारक की पर्याय से उत्पन्न होते हैं-तो क्या वे पर्याप्तक जलचरों से स्थलचरों से या खेचरों से आकर के उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तक जल वरों से स्थलचरों से या खेचरों से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं'गोयमा ! पज्जत्तएस्तिो उययज्जंति, णो अपज्जत्तएहितो उवव ति' हे गौतम ! पर्याप्तक जलचरों से स्थलचरों से और खेचरों से आकरके जीव नारक की पर्याय से उत्पन्न होते हैं अपर्यातक जलचरों से स्थलचरों से और खेचरों से आकरके जीव नारक की पर्याय से उत्पन्न नहीं होते हैं। इस सष शथी गौतमस्वामी प्रसुन मे पूछे छ -'जइ जलचस्थलचर खहवरे. हितो उपवज्जति-किं पज्जतएहिता उववज्जति, अपज्जत्तए० उव०' 8 सन् જે જલચર સ્થલચર અને ખેચર જીવેમાંથી આવેલ છવ નારકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તો શું તેઓ પર્યાપ્ત જલચરથી, કે સ્થળચરેથી અથવા બેચરોમાંથી આવીને ઉપન થાય છે ? કે અપર્યાપ્તક જલચમાંથી, અથવા સ્થળચરોમાંથી અથવા ખેચરોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन ४९ छ-'गोयमा ! पज्जत्तएहिती उववज्जांति को अपज्जत्तएहिती उववज्जति', गौतम ! यात सयरामाथी, સ્થળચરમાંથી, અને ખેચરોમાંથી આવીને જવ નારકની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અપર્યાપ્ત જલચરમાંથી કે સ્થળચરમાંથી આવીને જીવનારકની શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy