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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२३ व.४ पाठादिवनस्पतिकायजीवोत्पत्यादिनि० ३३१ कथितं यद् देवो न कुत्रापि उत्पद्यते अतः पाठावोऽपि एवं वक्तव्यम् यद् मूला-- दारभ्य बीजपर्यन्तं कुत्रापि देवो नैव उत्पद्यते इति एवं लेश्यादिकाः सर्वेऽपि शालिकवर्गवदेव वक्तव्याः । पाठाम गवालुंकीप्रभृति वनस्पतीनां मूलतया उत्पधमानजीवानां तिस्त्र एव लेश्याः कृष्ण नील कापोतिकाः वक्तव्याः तत्र देवोत्पत्तरभावत् । आलुकवर्गापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदर्शयति 'नवरं' इत्यादि 'नवरं ओगाहणा जहा वल्लीणं' नवरमवगाहना-यथा वल्लीनाम् फलोदेशेऽवगाहना जघन्येन अङ्गुलस्यासंख्येयभागम् उत्कृष्टतो धनुःपृथक्त्वम् द्विधनुरारभ्य नवधनु:पर्यन्तम् इति, 'सेसं तं चे शेषं यह लक्षण्यं कथितं तदतिरिक्तं स्थित्यादिकं तदेव आलुकवर्गवदेव, आलु रुबर्गे स्थिति विषये कथितम् एवम् स्थितिघन्येनापि नहीं कही गई है इसलिये पाठावर्ग में भी ऐसा ही कहना चाहिये कि देवो की उत्पत्ति कहीं पर भी नहीं होती है। इसी प्रकार से लेश्यादिक समस्त द्वार भी शालिक वर्ग जैसा कहना चाहिये पाठा, मृगवालु की आदि वनस्पतिकायिक जीवों के जो कि उनके मूलादिरूप से उत्पन्न हुए हैं तीन ही कृष्णादिकलेश्याएँ होती हैं। क्योंकि उनमें देवों की उत्पत्ति नहीं होती है आलु वर्ग की अपेक्षा से जो भिनता है उसे स्वयं सूत्रकार ने 'नवरं आदि पाठ द्वारा इस प्रकार से प्रदर्शित किया है कि-अवगाहना द्वार का कथन यहां बल्ली के जैसा करना चाहिये-फलोद्देशक में अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से धनुः पृथक्त्व कही गई है 'सेस ते चेव' इस भिन्नता के अतिरिक्त और सब कथन यहां आलुकवर्ग के जैसा ही है आलुकवर्ग में स्थिति के विषय में ऐसा कहा गया है कि તે કઈ પણ સ્થળે દેવોની ઉત્પત્તિ કહી નથી તેથી પાઠા વર્ગમાં પણ એજ પ્રમાણે કહેવું જોઈએ કે દેવની ઉત્પત્તિ કયાંય થતી નથી. એજ રીતે લેશ્યા વિગેરે સઘળા દ્વારો પણ શાલીવર્ગ પ્રમાણે કહેવા જોઈએ. પાઠા, મૃગવાલુંકી વિગેરે વનસ્પતિકાયિક જીવોને કે જેઓ તેઓના મૂળ વિગેરે રૂપથી ઉત્પન થયા હોય છે. તેઓને કૃષ્ણાદિ ત્રણ જ વેશ્યાઓ હોય છે. કેમકે તેમાં દેવોની ઉત્પત્તિ થતી નથી આલુક વર્ગની અપેક્ષાએ જે ફેરફાર छे, ते स्वय सूबारे 'नवरं' वगेरे ५४ ६१२ मा शत मत छ, है“અવગાહના દ્વારનું કથન અહીયાં “વલ્લી'ના કથન પ્રમાણે કરવું જોઈએફળાદેશામાં અવગાહના જઘન્યથી આંગળના અસંખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણુની ही छ भने ४थी धनुः५५त्पनी सी छे, 'सेसं त' चेव' मा ५२
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪