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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ. १० सू०४ नैरयिकाणां द्वादशादिसमर्जितत्वम् १७७ तृतीयानां प्रतिषेधश्चतुर्थपञ्चमयोश्च विधानं कृतमिति । 'से केणद्वेगं भंते ! जाब समज्जिया वि' तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते पृथिवीकायिका न द्वादशसमजिता: १, न वा नो द्वादशसमर्जिताः २, नवा द्वादशकेन नो द्वादशकेन समर्जिताः ३, किन्तु द्वादशः समर्जिताः४, द्वादशकैश्च नौ द्वादशकेन च समर्जिता अपी५ ति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयना' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम! 'जेणं पुढचीकाइया णेगेहिं वारस एहिं पवेसणगं पविसंति' ये खलु पृथिवीकायिका अनेकै द्वादश: प्रवेशन प्रविशन्ति, 'ते णं पुढवीकाइया बारसएहिं समज्जिया' ते खलु पृथिवीकायिकाः द्वादशकैः समर्जिता इति कथ्यन्ते४ | जे णं दृढवीकाइया गे िवारस रहि' ये खलु पृथिवीकाविका अनेक द्वदिशः, 'अन्नेजय जङ्घन्ने कहे गये हैं । इस प्रकार से यहां पर प्रथम, द्वितीय और तृतीय विकरूपों का निषेध और चतुर्थ पंचम विकल्पों का विधान किया गया है, अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'से देणट्टेणं जाव समज्जिया वि' हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि पृथिवीकायिक द्वादश समर्जित नहीं होते हैं १ नो बादश समर्जित नहीं होते हैं२ और एक द्वादशक से और एक नो द्वादशक से समर्जित नहीं हैं ३ किन्तु अनेक द्वादशों से समर्जित होते हैं४ एवं अनेक द्वादशकों से तथा एक नो द्वादशक से समर्जित होते हैं५ इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! जे णं पुढवीकाइया गेहिं बारसएहिं पवेस गं पविसंति' हे गौतम! जो पृथिवीकायिक अनेक १२ की संख्या में प्रवेश करते हैं इस कारण वे पृथिवीकायिक अनेक द्वादशों से समर्जित कहे गये हैं४ 'जेणं पुढवीकाइया णेगेहिं बारस एहि, अन्नेण य जहन्नेणं આ રીતે અહિયાં પહેલા, ખીજા અને ત્રીજા વિકલ્પાના નિષેધ અને ચાથા અને પાંચમાં વિકલ્પનુ' સમાઁન કરેલ છે. हवे गौतमस्वाभी प्रबुने खेवु पूछे छे है- ' से केणटुणं भंते! जाब समज्जिया वि' हे भगवन् याय मेनुं शा आर उसे है। है पृथ्वी अयि है। દ્વાદશ સમજીત હાતા નથી તથા ના દ્વાદશ સમત પણ હાતા નથી ર તેમજ એક દ્વાદશથી અને એક ના દ્વાદશથી સમત પણ હાતા નથી. ૩ પરંતુ અનેક દ્વાદશૈાથી અને અનેક દ્વાદશાથી તથા એક ને! દ્વાદશથી સમ छत होय हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु छे - 'गोयमा ! जे षणं पुढवीकाइया गेहि बारसेहि पवेक्षणगं पविसंति' हे गौतम! पृथ्वी डायिडें। અનેક ૧૨ ખારની સંખ્યામાં પ્રવેશ કરે છે તેથી તે પૃથ્વીકાયિકાને અનેક द्वादृशोथी समर्थांत ह्या छे. ४ 'जेणं पुढवीकाइया णेगेहि बारसेहि अन्नेण य भ० २३ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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