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________________ १२६ भगवतीसूत्रे 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'आयप्पओगेणं उववज्जति' आत्मप्रयोगेण उत्पधन्ते 'णो परप्पभोगेणं उपवति ' नो परप्रयोगेण उत्पधन्ते हे गौतम ! नारका जीवाः स्वात्मव्यापारेणैव समुत्पद्यन्ते, त्यधिकरणमयत्नानां कार्योत्पादकस्यादृष्टचरत्वात् अन्यथा जगद्वैचित्र्यव्यवस्थाया एव विलोपः प्रसज्येत इति भावः । 'एवं जाव वेमाणिया' एवं यावद्वैमानिकाः यथा नारका आत्ममयोगेशैव उत्पद्यन्ते न तु परपयोगेण तथैव पृथिवीकायादारभ्य वैमानिकान्तजीवा अपि यत्र कवन गतौ आत्मव्यापारेणैव समुत्पद्यन्ते न तु परव्यापारणेति। एवं उचट्टणा दंडओ 'गोयमा' हे गौतम ! 'आयप्पओगेणं उववति ' नारक आत्मप्रयोग से उत्पन्न होता है 'णो परप्पओगे णं उववज्जति' परप्रयोग से उत्पन्न नहीं होते हैं। नारक जीव अपने व्यापार से ही उत्पन्न होते हैं परप्रयोग से वे नरकावास में किसी भी प्रकार से उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि जो प्रयत्न व्यधिकरण होते हैं-भिन्न २ अधिकरणवाले होते हैं-उनमें एक दूसरे की कार्योत्पादकता कभी नहीं देखी गई है नहीं तो फिर इस प्रकार से जगत् की जो यह विचित्रव्यवस्था है उसका ही लोप होने का प्रसङ्ग होता है एवं जाच वेमाणिया' जिस प्रकार नारकावास में नारक आत्मव्यापार से ही उत्पन्न होते हैं, पर के व्यापार से नहीं उसी प्रकार पृथिवीकाय से लेकर वैमानिकान्त जीव भी चाहे जिस किसी गति में अपने व्यापार से ही उत्पन्न होते हैं परके व्यापार से उत्पन्न नहीं होते हैं 'एवं उबट्टगा दंडओ वि' उत्पत्ति दण्डक के जैसा प्रशन उत्तरमा प्रभु ४ छ 3-'गोयमा !' गीतम! 'आयप्पओगेणं उवव. जंति' ना२है। भाभप्रयोगथी जपन्न थाय छे. 'णो परप्पओगेणं उववज्जति' પરપ્રાગથી ઉત્પન્ન થતા નથી. નારક જીવ પોતાના વ્યાપારથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, પરપ્રાગથી તેઓ નરકાવાસમાં કોઈ પણ પ્રકારે ઉત્પન્ન થતા નથી. કેમકે જે પ્રયત્ન વ્યધિકરણ હોય છે. અર્થાત્ જુદા જુદા અધિકરણવાળે હોય છે, તેમાં એકબીજાનું કાઁપાદકપણું કઈ પણ સમયે દેખવામાં આવતું નથી. નહી તે પછી આ રીતે જગની જે આ વિચિત્ર વ્યવસ્થા છે, તેને सा५ थाना प्रस16पस्थित थाय छे. 'एवं जाव वेमाणिया' २ शत નરકાવાસમાં નારક જીવ પિતાના વ્યાપારથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. અન્યના વ્યાપારથી નહીં એજ રીતે પુસ્વિકાયથી લઈને વૈમાનિક સુધીના છ પણ ચાહે તે કઈ એક ગતિમાં પોતાના વ્યાપાર-પવૃત્તિથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. सयन यापार-प्रवृत्तिथी उत्पन्न यता नथी 'एवं उवट्टणा दंडओ वि શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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