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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ०१० सू०१ जी० सोपक्रमनिरुपक्रमायुष्यत्वम् १२१ 'कि आइडीए उति परिडीए उवति' किमात्मद्धर्चा उद्वर्तन्ते परद्धर्चा उत्पद्यन्ते ? हे भदन्त ! नारकजीवाः किं स्वकीयसामर्थ्येन उद्वर्तन्ते परसामध्येंन वा उद्वर्तन्ते ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'आइडीए उपबति नो परिडीए उववर्द्धति' आत्मऋदया उद्वर्तन्ते नो परऋद्धया उद्वर्तन्ते यदिदं नारकाणां मरणापरपर्यायम् उद्वर्तनम् तत् स्वसामर्थ्येने वि भगवत उत्तरम् | 'एवं जाव वैमाणिया' एवं यावद्वैमानिकाः, यावत्पदेन एकेन्द्रियादारभ्य वैमानिकपर्यन्तं सर्वेऽपि दण्डकाः संगृहीता भवन्ति तथा च यथा नारजीवानामुद्वर्तनं स्वकीयसामर्थ्यादेव न तु परकीयसामर्थ्यात् तथा एकेन्द्रियादारभ्य वैमानिकपर्यन्तजीवानासरि उद्वर्तनम् स्वसामर्थ्येनैव भवति न तु परकीयसामर्थ्येनेति भावः । ' नदरं जोइसियवेमाणिया य वयंतीति आइडीए उबवति परिडीए उबवति' हे भदन्त । नैरधिक जीव क्या अपने सामर्थ्य से उद्धर्त्तना करते हैं या पर के सामर्थ्य से उद्वर्त्तना करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'षमा ! आइडी उबवत नो परिडीए' हे गौतम! नारक जीव अपने सामर्थ्य से ही उदर्त्तना करते हैं पर के सामर्थ्य से नहीं अर्थात् नारक जीवों का जो यह मरणरूपपर्यायवाला उद्वर्त्तन है वह उनकी शक्ति से ही होता है, परकीय सामर्थ्य से नहीं होता है 'एवं जाव वेमानिया' इसी प्रकार से एकेन्द्रिय से लेकर वैमानिक तक के समस्त दण्डक संगृहीत हो जाते हैं तथा च- जिस प्रकार से नारक जीवों का उद्वर्त्तन अपने सामर्थ्य से ही होता है परकीय सामर्थ्य से नहीं होता, उसी प्रकार से एकेन्द्रिय से लेकर वैमानिक पर्यन्त जीवों का भी उद्वर्त्तन अपनी २ सामर्थ्य से
परिढी वट्टति' हे भगवन् नैरथि व शुद्ध पोताना सामर्थ्य थी - ના કરે છે? કે બીજાના સામર્થ્યથી ઉદ્ધૃતના કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४ छे है - 'गोयमा ! आइइडीए उबवट्टतिनो परिड्ढीए' हे गौतम નારક જીવ પેાતાના સામર્થ્યથી જ ઉદ્વૈતના કરે છે. ખીજાના સામર્થ્યથી કરતા નથી. અર્થાત્ નારક જીવતુ જે આ મણરૂપ પર્યાયત્રાળું ઉદ્ધૃત ન છે, ते तेखानी शक्तिथी ४ थाय छे, श्रीजना सामर्थ्यथी थतुं नथी. 'एव' जाव वैमाणिया' मा०४ रीते मेहेन्द्रियथी सघने वैमानिक सुधीना मघा इंड. ફાના સંગ્રહ થઈ જાય છે. તથા જે રીતે નારક જીવે નુ ઉદ્દન પાતાના સામર્થ્યથી જ થાય છે બીજાના સામર્થ્યથી થતું નથી. એજ રીતે એકેન્દ્રિ થી લઈને વૈમાનિક સુધીના જીવાનુ' ઉદ્દન પણુ પોતપોતાના સામર્થ્યથી જ
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪