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________________ ९२ 'पढमेण माणुसोत्तर - नगं स नदिस्सरं निईएणं । एइ त तरणं, कय चेहयवंदणो इह ' ॥१॥ छाया - प्रथमेन मानुषोत्तरनगं स नन्दीश्वरं द्वितीयेन । एति ततस्तृतीयेन कृतचैत्यवन्दन इह च ॥ १ ॥ इति अत्र चैत्यपदं न देवfeatधकम् मन्दिरस्थापनस्य तत्र प्रतिष्ठापित मूर्तिपूजा या सावयत्वेन सकलशास्त्र निराकरणात् अतश्चैत्यपदं ज्ञानार्थकम् यथा भगवता समुपदिष्टं तत्तथैवोपलभ्य तदीयज्ञानं प्रशंसनीति | 'विज्जाचारणस्स णं गोयमा ' विद्याचारणस्य खलु गौतम ! 'तिरियं एवए गइसिए पत्ते' तिर्यक् एतावान्areat गतिविषयो गमनक्रियागोचरं क्षेत्रं प्रज्ञप्तः - कथित इति । 'विज्जाचारणसणं भंते! उडूं के इए गतिविसर पन्नत्ते' विद्याचारणस्य खलु मदन्त ! ऊर्ध्व कियान् कीदृशो गतिविषयो- गमन क्रियाविषयभूतं क्षेत्रं समुदाहृतमितिप्रश्नः । भगवानाह - गोयमा' इत्यादि, गोयमा हे गौतम! से णं इओ एगेणं उप्पारणं' मेण माणुसोत्तर - नगं स' इत्यादि। यहां जो चैश्यपद आया है वह देवविम्ब का प्रतिबोधक नहीं है क्योंकि मन्दिर की स्थापना का और उसमें प्रतिष्ठापित मूर्ति की पूजा का कार्य सावध होने से सकलशास्त्रों ने निराकृत किया है। इसलिये यह चैत्यपद ज्ञानार्थक है जैसा भागवान् ने कहा है वह वैसा ही है, इस प्रकार से श्रद्धासंपन्न बनकर उनके ज्ञानों की प्रशंसा करना यही ज्ञान की बन्दना है इस प्रकार से - 'बिज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवइए गइविसए पनन्ते' हे गौतम विद्याचारण की तिर्यग्गति का विषय कहा गया है विद्याचारण की ऊर्ध्वगति का विषय कैसा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है - 'गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं' हे गौतम! वह - भगवतीसुत्रे 'पढमेण माणुसोत्तर' त्याहि मडियां ने चैत्य यह भाव्यु छे ते देवमिभ्मनु પ્રતિબંધક નથી. કેમકે મ"ીરની સ્થાપનાના અને તેમાં પ્રતિષ્ઠિત કરેલ મૂર્તિની પૂજાના વિધિ સાવદ્ય હાવાથી તમામ શાસ્ત્રોએ વત કરેલ છે. તેથી આ ચૈત્ય પદ જ્ઞાનાક છે, ભગવાને જે પ્રમાણે કહ્યુ` છે, તે એજ પ્રમાણે છે. આ પ્રમાણેની શ્રદ્ધાથી યુક્ત બનીને તેમના જ્ઞાનાની પ્રશ'સા ४२वी ज्ञाननी बहना छे. या रीते 'विज्ञाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवइए गइविस पण्णत्ते' हे गौतम! विद्याधारणुनी तिर्यग्गतिना विषय या પ્રમાણે કહેલ છે. વિદ્યાચારણની ઉપરની ગતિના વિષય કેવા હ્યો છે? આ प्रश्नना उत्तरमा प्रभु छे - 'गोयमा ! से णं इओ एगेणं उत्पादनं ०' डे શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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