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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ०५ सू०४ षट्प्रदेशिक स्कन्धे वर्णादिनिरूपणम् ७१५ भङ्गः १, सर्वः शीतो, देश: स्निग्धो, देशा रूक्षा इति द्वितीयो भङ्गः २ सर्वः शीतः देशाः स्निग्धा देशो रूक्ष इति तृतीयः ३, सर्वः शीतो, देशाः स्निग्धाः, देशा रूक्षा इति चतुर्थः ४ | सर्व उष्णो देशः स्निग्धो देशो रूक्षः, इति द्वितीयत्रिकम् । देश उसका स्निग्ध और एकदेश उसका रूक्ष हो सकता है १ अथवा - 'सर्वः शीतः देशः स्निग्धः देशाः रूक्षाः २' सर्वांश में यह शीत स्पर्श वाला हो सकता है एकदेश उसका स्निग्ध स्पर्शचाला हो सकता है और अनेक देश रूक्ष स्पर्श वाले हो सकते हैं २ अथवा'सर्वः शीतः देशाः स्निग्धाः देशो रूक्षः ३' सर्वाश में वह शीत हो सकता है अनेक देश उसके स्निग्ध स्पर्श वाले हो सकते हैं और एकदेश उसका रूक्ष हो सकता है ३ अथवा 'सर्वः शीतः देशाः स्निग्धाः देशाः रूक्षाः ४' सर्वांश में वह शीतस्पर्श बाला हो सकता है अनेक देशों में वह fears स्पर्शवाला हो सकता है और अनेक देशों में यह रूक्षस्पर्श वाला हो सकता है ४ यह प्रथम त्रिक है अथवा 'सर्व उष्णः देशः स्निग्धः देशोः रूक्षः ' वह अपने सर्वांश में उष्णस्पर्श वाला एक देश में स्निग्ध स्पर्श वाला और एक दूसरे देश वह रूक्ष स्पर्शवाला हो सकता है इस प्रकार का यह द्वितीय त्रिक है इस द्वितीय त्रिक में भी इसी प्रकार से ४ भंग होते हैं जो इस प्रकार से है - 'सर्व उष्णः में રૂક્ષસ્પર્શ વાળા स्निग्धः देशाः उद्देश स्निग्ध તેના એકદેશ સ્નિગ્ધ સ્પર્ધા વાળા હોય છે. તેના એકદેશ होय छे. आ पड़े थे। लौंग छे. १ अथवा 'सर्वः शीतः देशः रूक्षाः २' सर्व संशोधी ते 'डास्पर्शवाणी होय छे तेनेा સ્પશવાળા હાય છે. અને અનેક દેશે રૂક્ષપશવાળા હોય છે. આ ખીજો लौंग छे. २ अथवा 'सर्वः शीतः देशाः स्निग्धाः देशो रूक्षः ३' ते सर्वांशथी ઠંડા સ્પર્શીવાળે હાય છે. તેના અનેક દેશેા સ્નિગ્ધ પવાળા હૈય છે. तेने! म्हेश ३क्ष स्पर्शवणे होय छेउ 'सर्वः शीतः देशाः स्निग्धाः देशाः रूक्षाः ४' ते सर्वांशथी ठंडा स्पर्शवाणी होय छे. मनेड देशीभां ते સ્નિગ્ન-ચિકણા સ્પર્શવાળે! હાય છે. અને અનેક દેશેમાં તે રૂક્ષપવાળા ડાય છે. ૪ આ પ્રથમ ત્રણ સ‘ચેગી ૪ ચાર ભ`ગેા રહ્યા छे. अथवा 'सर्व उष्णः देशः स्निग्धः देशः रूक्षः १ ते पोताना सर्वाशथी ઉષ્ણુરપ વાળે હેાય છે. એકદેશમાં સ્નિગ્ધ પાવાળા હોય છે. અને એક દેશમાં રૂક્ષસ્પવાળા હાય છે. આ રીતે ખીજો ત્રિકસ'ચાગી ભંગ છે. આ जीन त्रिभ्सयोगीमा या रीते छे. 'सर्व उष्णः ४ अंगो थाय छे. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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