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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ ३०५ सू०४ असुरकुमारविकुर्वणानिरूपणम् ५७ देवा दुविहा पन्नत्ता' असुरकुमारा देवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा ' तद्यथा मायिमिच्छादिट्ठि उववन्नगा य' मायिमिध्यादृष्टयुपपन्नकाश्च 'अमाथि सम्मदिट्ठि उन्नगाय' माथि सम्यग्दृष्टयुपपन्नकाइव | 'तत्थ णं जे से मायिमिच्छादिट्टि उववन्नए असुरकुमारे देवे' तत्र खलु यः स मायिमिध्यादृष्टयुपपन्नकोऽसुरकुमारो देवः, 'से णं उज्जयं विउब्विस्सामीति बंक विउठाई' स खलु ऋजुक विकुर्विष्यामीति वक्रं विकुर्वते 'जान णो तं तडा बिउब्बई' यादद नो तत् तथा विकुर्वते अत्र यावत्पदेन 'वक' विउन्निस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ जं जहा इच्छ एतदन्तस्य ग्रहणं भवति असुरकुमारेषु मध्ये यो मायिमिध्यादृष्टचुपपन्नः स यथा असुरकुमारा देवा दुबिहा पण्णत्ता' असुरकुमारदेव दो प्रकार के होते हैं। 'तं जहा' जैसे 'माथिमिच्छादिट्टि उचवन्नगा य, अमाथि सम्मदिट्ठि उववनगा य' एक मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक और दूसरे आमायी सम्यrefष्ट उपन्न 'तत्थ णं जे से मायिमिच्छादिट्ठि उववन्नए असुरकुमारे देवे' इनमें जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक असुरकुमारदेव है । 'सेणं उज्जुषं विविस्सामीति वकं विजच्व' वह ऋजुक विकुर्वणा करूं ऐसा विचार करता है किन्तु वक्र विकुर्वणा उनसे हो जाती है, 'जाव णो तंतहा विउन्ह' यावत् वह जैसी विचारता है ऐसी विकुर्वणा नहीं कर पाता है। यहां यावत्पद से 'वकं विव्विस्सामीति उज्जुयं विउव्व‍ जं जहा इच्छई' इस पाठ का संग्रह हुआ है। असुरकुमारों के बीच में जो माघी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक असुरकुमार है वह जैसा जो संकल्प करता है उसे वैसा नहीं कर पाता किन्तु संकल्पित से विपरीत ही करता है इसमें कारण उसके मायी मिथ्यादृष्टि होने का प्रभाव है। " गोयमा !” हे गौतम! "असुरकुमारा देवा दुबिहा पण्णत्ता" असुरकुमार देव मे अारना होय छे. “ तं जहा " प्रेम "माथि मिच्छादिट्ठि उववन्नगा यू, अमायी सम्मदिट्ठि उववन्नगाय" : भायी मिथ्यादृष्टि उपपन्न - उत्पन्न थयेल हाय छे, रमने जीले सभायी सभ्यष्टि उपपन्न - होय छे. " तत्थ णं जे से मायिमिच्छादिट्ठी उववन्नए असुरकुमारे देवे" तेमां ने भायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नउत्पन्न _ थयेक्ष असुरकुमार देव छे, "से णं उज्जुयं विजव्विस्सामीति वकं विउव्वइ" ते ऋतु - सरज विदुर्वा ४३ "जाव नो तं तहा विव्व" तेभ विचारे છે. પણ યાવત્ તેવી વિપુણા કરી શકતા નથી. અહિં યાવપદથી विस्सामीति उज्जुयं विउव्वइ जं जहा इच्छ" मा पाउना साथ थयो छे. वे વિચાર કરે છે તે પ્રમાણે તે કરી શકતા નથી. પશુ સ`કલ્પથી જુદી રીતે જ रे छे. तेनुं श्रणु तेनुं भायामिथ्यादृष्टिपथाना प्रभाव ४ छे, "तत्थ णं जे ક भ० ८ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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